रे मन विरथा
रे मन बिरथा छांड सब वृन्दाविपिन निहार
कबहुँ उत्कण्ठा प्राण बनै नित्य निरखूँ युगल विहार
नित्य रास विलासमई केलि करत युगल जोरि
क्षणहूँ ठाड़े लगै साँझ भई हिय उठै न लालसा थोरि
बलिहारी सब सखिन की जिन प्रेम रसरीति सजाई
जन्म सुफल भ्यै बाँवरी जिन हिय सोइ उत्कण्ठा आई
Comments
Post a Comment