हरिहौं कहौं
हरिहौं कहौं व्यथा कौन भाँति
व्याकुल हिय कित ठौर न पावै क्षणहुँ मिले न शाँति
क्षणहुँ मिलै न शाँति हरिहौं बाँवरी हिय त्रयताप जरावै
नाम भजन कौ सार न कीन्हीं मूढ़ा पुनि जग वीथिन जावै
साँची पीर न उपजै हिय अंतर न साँचो नेहा लगाई
जन्मन की रही निर्धन बाँवरी कबहुँ साँचो धन न पाई
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