प्रेम ग़ज़ल

----------------*प्रेम*------------

प्रेम कहने को तो एक छोटा से शब्द है , परन्तु अनन्त कोटि ब्रह्मांड नायक को भी अपने वशीभूत कर लेता है।श्रीश्यामसुन्दर अपना समस्त ऐश्वर्य अपनी माधुरेश्वरी श्रीराधा की चरण रेणुका पर न्यौछावर कर देते हैं।स्वयम  प्रेम स्वरूपा श्रीकिशोरी प्रेममूर्ति स्वरूपा आह्लादिनी ही उनके हृदय के प्रेम का मूर्तिमान रूप है। प्रेम एक विशाल सिन्धु है जिसका कोई ओर छोर ही नहीं है, न ही इसे कभी शब्दों में पूर्णतः व्यक्त किया जा सकता है, प्रेम वाणी का विषय ही नहीं ।लिखने में कोटिन कोटि वाणियां भी थकित भृमित हो जाती हैं। परन्तु एक शब्द में प्रेम का यदि सम्पूर्ण अर्थ दृष्टिगोचर होता है तो वह है श्रीयुगल।श्रीश्यामाश्याम के प्रेम का विस्तार ही प्राकृत अप्राकृत जगत में हुआ है।एक बार किसी बूंद रूपी जीव पर अपनी करुणा छिटका दें तो वह जीव व्याकुल हो क्षण क्षण इन्हें ही पुकारता है। किसी जीव की इन्हें पुकारने की भी सच्ची सामर्थ्य कहाँ है, बस इनके प्रेम ,इनकी कृपा का पात्र जगत से बेपरवाह होकर भीतर ही भीतर घुलता सा इन्हें निरन्तर पुकारता रहता है।
     जगत तो सदा से ही प्रेमी के लिए प्रतिकूल रहा है, परन्तु भगवत पथ पर चलता हुआ साधक स्वयं को अकेला भी अनुभव नहीं करता। श्रीश्यामाश्याम सरकार अपने प्रेम की दृढ़ डोरी से उसे बांधकर रखते हैं, अपने आश्रित की पग पग पर सम्भाल करते हैं।अपने प्रियाप्रियतम की मधुर स्मृति से आनन्दित अश्रु बहाते हुए भी अपना सम्बन्ध उन्हीं से रख सम्पूर्ण जगत को उन्हीं की लीला रूप में ही अनुभव करता है। प्रेमी की आँखें सदा अपने प्रेमास्पद का सौंदर्य ही तलाशती हैं, उनकी महक से महकता हुआ प्रेमी अपने जीवन मे ऐसा वैराग्य धारण कर लेता है कि उसे अपने जीवन तक का लोभ नहीं रहता।प्रेमी को मुक्ति भुक्ति तक कि कोई इच्छा नहीं, कुछ इच्छा है तो केवल अपने प्रेमास्पद का सुख ही।अपने प्रेमास्पद का सँग, उसकी मधुर स्मृति ही तो जीवन है उसका। उनकी स्मृति में नेत्रों का झरना भी प्रेमी के लिए सुखद अनुभूति है।

   अपने प्रेमास्पद से दूरी अनुभव कर प्रेमी चीत्कार करता है, छटपटाता है जैसे उसके प्राण अभी निकल ही जायेंगे। इस व्याकुलता में ही अपने प्रेमास्पद की क्षणिक अनुभूति उसके प्राणों की रक्षा कर उसे जीवंत करती है।प्रेमी बस मौन से होकर अपने प्रेमास्पद को ही निहारता है, उन्हीं को सुनता है।उन्हीं की प्रेम वाटिका का एक पुष्प होना चाहता है जो पुनः पुनः उनका ही श्रृंगार, उनका ही सुख हो सके।

   प्रेम होना भी एक विचित्र सी ही घटना है। प्रेमी कभी मौन, कभी व्यक्त, कभी अव्यक्त बस प्रेमास्पद में ही स्वयम को विस्मृत कर देता है।प्रेम विचित्र ही अवस्था है , यह जितना सहज है उतना ही  असहज। दोनो विपरीत परिस्थितियां कैसे, क्योंकि प्रेमी का हृदय एक दम सहज है , वह अपनी सहजता , अपनी कोमलता से ही इस प्रेम पथ पर अग्रसर होता है। परन्तु यह प्रेम पथ असहज इसलिए क्योंकि भीतर से सहज होकर वह अपने प्रेमास्पद में तल्लीन है परन्तु बाहर से यह पथ भौतिक रूप से असहज होता जाता है।इस प्रेम सिन्धु से कोई पार न होकर इसमे डूबने की ही इच्छा रखता है।बाहर से आंधी तूफान आते रहते हैं परन्तु प्रेम पथिक स्वयं पर आश्रित न होकर अपने प्रेमास्पद की ही अधीनता स्वीकार करता है,यहाँ डूबना या तैरना उसकी नहीं उसके प्रेमास्पद की इच्छा ही हो जाती है।उसके नेत्र प्रीति से भरे हुए कटोरे जैसे प्रेम सुधा छलकाते रहते हैं जिनमे उसके प्रेमास्पद की मधुर मधुर छवि समाई रहती है।

  प्रेमी की अपनी कोई इच्छा शेष ही नहीं, केवल ओर केवल प्रेमास्पद का सुख ही।नेत्रों में अश्रु भर अपने प्रेमास्पद का चरण पखारना ही बस उसका जीवन हो जाता है। यह बूंद जो सागर से छिटक गयी थी पुनः पुनः बरस कर उसी में विलीन हो जाने की ही यात्रा करती है , इस यात्रा का ही वास्तविक नाम है *प्रेम*।

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