मुद्दत से
मुद्दत से मेरे लबों पर तेरा नाम न आया
तुम्हें पुकारने का भी सलीका कहाँ मुझे साहिब
गर इश्क़ हो सच्चा रूह तलक नीलाम होती है
हम क्या जाने यह फ़लसफ़ा रूह तलक शोर है
मुद्दत से कोई वाकफियत न रखी हमने
न तेरे नाम से न ही तेरे इश्क़ से
यूँ तो डूबने को इश्क़ का समन्दर हो तुम
कतरे सी औकात मेरी न डूब सकी न फनाह हुई
अब क्या लिखूँ तुम्हारे इश्क़ की साहिब
समन्दर होकर भी बूंदों की ख़बर रखते हो
अब सजदे में तुम्हारे उठती नहीं आँख भी
इश्क़ के एहसास से रूह तलक नम है
तुमसे बिखर तुम में ही खो जाना है वापिस
बूंद की जिन्दगी भी समन्दर में लौटना है
बूंदों के बरसने से भी समन्दर कितना प्यासा है
इश्क़ का समन्दर ऐसा पीकर और उमड़ता है
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