विरह
!!विरह !!
विरह
हाँ विरह ही माँगती हूँ तुमसे
एक सच्चा विरह
जिस में क्षण क्षण की व्याकुलता हो
जिस में क्षण क्षण की अतृप्ति हो
जिसमें क्षण क्षण की असहजता हो
जिसका क्षण क्षण ताप भरा हो
भीषण ताप से भरा
जिसके क्षण क्षण में हृदय में एक ही आंदोलन हो
जिसके क्षण क्षण में नेत्रों से अश्रु नर्तन हो
जिसके क्षण क्षण में हृदय का क्रंदन हो
जिसका क्षण क्षण समस्त मन इंद्रियों को ऐसे आतुर रखे
कि नेत्र देखना चाहें
तो बस तुम्हें
कर्णपुट कोई ध्वनि चाहें
तो बस तुम्हारी
रोम रोम स्पर्श चाहे
तो बस तुम्हारा
कठिन
हाँ इससे भी कठिन
ऐसा विरह
जो इन शब्दों से भी न लिखा जा सके
इतना कठिन
विरह ही माँग है मेरी
अभी विरह चखा ही कहाँ
इस हृदय ने
अभी तो क्षण भर भी तुम्हें पुकार न पाई
तुम्हारा नाम अधरों तक आते आते रुक जाता है
लौट लौट जाता है हृदय
पुनः जग वीथिन में
अभी तो मेरी पुकार भी सच्ची नहीं
न ही प्रेम सच्चा मेरा
पर तुम
तुम तो सच्चे हो न
तो तुम्हारा दिया हुआ विरह
विरह भी तो सच्चा होगा न
बस वही विरह माँग हो जावै इस हृदय की
जानती हूँ तुम्हारा प्रेम सत्य है
देखो तुम इनकार नहीं करना
नहीं नहीं प्रेम की माँग नहीं मेरी
प्रेम की योग्यता नहीं
प्रेम की पुकार नहीं
प्रेम की आतुरता नहीं
बस विरह
केवल विरह
सच्चा विरह
दोगे न मुझे
दोगे न मुझे
अपना सच्चा विरह
सच्चा विरह
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