अश्रु दो

अश्रु दो
ताप दो
हृदय का विलाप दो
क्षण क्षण संताप दो
न माँगू मिलाप दो
विरहणी की छाप दो
विरह
हाँ विरह
पुनः पुनः यही पुकार
इस हृदय की
परन्तु सच्चा विरह कब
जब यह नेत्र एक बार निहार लें तुमको
फिर जावें एक क्षण को बाहर
तो जानें की क्या खोया
अभी तो इन नेत्रों को आभास ही नहीं
ऐसा कोई रँग दृष्टिगोचर हुआ ही नहीं
जिसको देखने के बाद
जिससे छूटना हो
तो सब और अंधकार भरा हो
ऐसी कोई ध्वनि इन कर्णपुटों मे उतरी कहाँ
जो तुम्हारी वाणी का आभास दे
जिसको पुनः न सुनने पर
यह कर्णपुट कुछ और सुनने से
इनकार कर दें
कुछ ऐसा स्वाद यह हृदय चख ले
जिससे छूट सब बेस्वाद हो जावे
यह स्वास एक बार ऐसा स्पर्श पा ले
जिससे एक क्षण छूटना भी मरण हो
ऐसा रोम रोम से वह रस स्पर्श
की पुनः केवल कंटक की कंटक हों
या सर्प दंश की पीड़ा होती रहे
क्षण क्षण की जलन
क्षण क्षण की पीड़ा
सच्चा विरह तो तभी घटित हो सकेगा न
तो पुनः सुनो पुकार
इस हृदय की
जो रोम रोम से फूट रही
पुकार रही तुम्हें
मिल्ने को नहीं
प्रेम को नहीं
विरह देने को
एक सच्चा विरह
उसके पश्चात
क्रंदन ही क्रंदन
क्रंदन ही बने जीवन प्रियतम
क्रंदन ही बने जीवन प्रियतम

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