द्वंद

हे हरि
हे नाथ
हे करुणासिन्धु
हे पतितपावन
हे भक्तवत्सल
क्या क्या नाम लूँ मैं तुम्हारे
इस जिव्हा से कभी तुम्हारा नाम भी तो उच्चारण न किया मैंने
सत्य है
अनन्त कोटि जन्मों से विमुख हूँ आपसे
अनन्त योनियाँ भोगी हैं मैंने
भोगी ही रहा सदा से
तुमसे विमुख रह
किसी भी योनि में स्मृति न हुई तुम्हारी
आह !!
तुमने करुणा की करुणासिन्धु
इस मानव देह को दिया
ताकि वह यात्रा कर सकूं जो तुम तक जाती है
परन्तु
मेरी भोग भोगने की जन्मों की जड़ता
कभी सोचा ही न कौन हूं क्यों हूँ किसलिए हूँ
यूँ ही मरते जन्मते मानव देह भी गयी कई बार
और तुम्हारी करुणा
पुनः मानव बना दिये
कि अपना मूल विस्मृत न होगा
पर नहीं
इस बार भी निराश ही किया
कभी कान में भी पड़ गया
मैं तो नित्य कृष्णदास हूँ
पर इस स्वरूप को न समझा
सुना अनसुना किया
फिर भी इस भोगी जीव ने
आह !!
अनन्त जन्म हो गए नाथ
परन्तु आपकी करुणा
कि इस जड़मति ने तो कुछ न किया
पुनः सुनाया
पुनः पुनः सुनाया
जीव नित्य कृष्णदास
अपने संतों के मुख से आप ही तो बोलते हो प्रभु
एक क्षण का भी सत्संग केवल आपकी कृपा
तो इस जड़मति के कानों से भीतर गया
हाय !! प्रभु ही केवल मेरे
अनन्त जन्मों से दूर हूँ आपसे
आपकी कृपा से संतसँग से यह सत्य हृदयंगम हुआ
परन्तु नाथ
अभी भी मेरी जड़ता न गई
अभी भी भोग न छूटे मेरे
हाय मैं निर्लज्ज जीव
अभी भी जिव्हा तुम्हारा नाम नहीं लेती
अभी भी तुमसे दूरी इस हृदय को छलनी नहीं कर रही
हे कृपासिन्धो
अब इतनी ही कृपा करो
मुझे शरण मे मत लो
नहीं नहीं
बहुत मैल है प्रभु
कृपा केवल इतनी करो
जो अनन्त जन्म तुमसे विमुख गए
उन जन्मों की पीड़ा अब दे दो इस हृदय में
जितनी स्वास इस देह से तुम्हारे नाम बिन निकलें अथाह पीड़ा में निकलें
हे हरि तुमहारी स्मृति से विमुख एक क्षण भी न हो इस जीवन का
हे करुणाकर
हे नाथ
तुमको क्षण भर भी विस्मृत न करूं
जैसा कैसा भी हूँ
नित्यदास हूँ तुम्हारा
अपने इस कथन को ही सत्य करो नाथ
एक क्षण की विस्मृति न देना

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