मेरे सद्गुरु की बलिहारी 10 पद
सद्गुरु मोहे दीजियो निज चरणन माँहि ठौर
नित नित चरण रहूँ चापत नाथ मेरो कौन आश्रय और
तुम्हरी कृपा ते हरिगुण गाऊँ मैं मग्न साँझ और भोर
तुम्हीं मेरी सुधि लेवन वारे नाथ अबहुँ पकरो मेरी डोर
दीजौ नाथ मोहे नाम की भिक्षा रहूँ नित प्रेम विभोर
तुम सों कौन प्रेम को दाता बाँवरी अधमन को सिरमौर
२
ऐसी कृपा कीजौ मेरे सद्गुरु हरिनाम को चाव रहे
साधु सन्तन सेवा करूँ नित नित ऐसो मन में भाव रहे
जित देखूँ हरि दरसन होवै हरि सँग ही मेरो लगाव रहे
हृदय के कल्मष सबहुँ नाश होय निर्मल मेरो सुभाव रहे
तुम्हरी कृपा ते ही नाम धन पाऊँ ऐसो नाम बहाव रहे
सद्गुरु तुम्हरी शरण गहूँ नित तुम सँग प्रेम निभाव रहे
३
तुम सों कौन प्रेम को दाता मोसों कौन पातकी नाथ
तुम बिन कौन भव बन्धन काटे शरण कीजौ मैं पतित अनाथ
कृपा कीजौ नाथ अधमन पर शरण पड़े को कीजौ सनाथ
तुम्हरे चरणन नित शीश नवाऊँ मस्तक पर रख दीन्हों हाथ
तुम्हरी कृपा ते बलि बलि जाऊँ अपनी और देखूँ सकुचात
जेहि विधि राख्यो तुम्हरी इच्छा बाँवरी तुम्हरे हाथ बिकात
४
मोसों कौन मलिन होय साहिब तुम्हरी कृपा अनन्त अपार
देखो नाँहि मेरो अधमाई कीजौ न मलिनता को कछु विचार
नाम की भिक्षा दीजौ मेरे सद्गुरु कीजौ मेरी आप सम्भार
अपने चरणन की रति दीजौ लागे ना मोहे विषय ब्यार
तुम्हरी कृपा ते ही पाऊँ नाथ मैं सेवा को कोऊ अधिकार
बाँवरी ऐसो भिक्षा मांगिहै बैठी द्वार तेरे आँचल पसार
५
सद्गुरु जी मोहे कीजौ चरणन चेरी
हाथ पकरि मोहे शरण कीजौ काटो भव की फेरी
हरिनाम तुम्हारी कृपा से होवै मन्द बुद्धि होय मेरी
मोहे आस सद्गुरु चरणन की नाँहि देर भई बहुतेरी
दासी को निज सेवा लीजौ कीजौ जगत सों निबेरी
तुम्हरौ चरण कमल नित सेवउँ अर्ज सुनो जी मेरी
६
मैं तो सद्गुरु के गुण गाऊँ
हरि नाम की भिक्षा पाई क्षण नाँहि बिसराऊं
जेहि विधि गुरु मोहे राखै सोई विधि रह जाऊँ
अपने सद्गुरु की बलिहारी चरणन सीस नवाऊँ
जिस विधि रीझे मेरो साहिब सोई विधि रिझाऊँ
रसना ते हरि नाम जपूँ कर सों सेवा नित पाऊँ
अँसुवन सों तिन चरण पखारूँ हृदय माँहि पधराऊं
७
नित नित सद्गुरु चरण रज लीजै
संत रूप हरि आए धरा पर सेवा को सुख लीजै
गुरु के वचन अटल कर मानिहै संशय कबहुँ न कीजै
सद्गुरु की शरण माँहि रहिये नित्य हरि नाम रस पीजै
जो मार्ग सद्गुरु दिख्लावे सोई मार्ग जाय पैर धरिजै
बाँवरी गुरु चरण सीस नवावै जन्म सुफल करि लीजै
मनमुख को जीवन कोऊ नाँहि जन्म विरथा काहे कीजै
८
सद्गुरु अपने की बलिहारी जिन हरि नाम जपाया
जन्मन के भव बन्धन काटे जो इनकी शरण में आया
बिन सद्गुरु भक्ति न करे कोऊ हरि की ऐसो माया
भक्त वत्सल सन्त रूप हरि ने जग जंजाल छुड़ाया
हाथ सीस पर राख्यो सद्गुरु तबहुँ हरि प्रेम उर आया
बाँवरी अपने गुरु किरपा ते नित नित हरि रस गाया
पुनः पुनः जाऊँ बलिहारी जो ऐसो सद्गुरु पाया
९
संत सद्गुरु मानुस ना मानिहै हरि अपनो रूप बनाय
संतन मुख ते हरि आप कहें एहो रूप धार कर आय
भव भटकत मूढ़ जीवों पर अपनी कृपा कोर बरसाय
नाम रूपी नैय्या बनाय लीन्हीं पतितों को लियो बैठाय
नाम विहीन अधम जीवों ते सद्गुरु आपहुँ नाम जपाय
काट भव बन्धन जीव के सद्गुरु निर्मल कियो सुभाय
कल्मष क्लेश सब नाश कियो तब हरि रस दियो प्रकटाय
बाँवरी नित जावै बलिहारी सदगुरू चरणन सीस नवाय
१०
बलिहारी सद्गुरु अपने की जिन गोबिंद राह बताई
भव सिंधु मेरो डोलत नैया आपहुँ कीन्हीं सम्भराई
जगत विषयन सों आप बचायो मोहे हरि राह बताई
विषय कामना नष्ट कियो गोविन्द तृषा जगाई
काट दियो भव बन्धन मेरो मोहे प्रीत की नाव बैठाई
हरि हरि सुमिर सुमिर सुख पायो यही चाह्वे उतराई
बाँवरी पुनः पुनः जाये बलिहारी हुई धन्य सद्गुरु पाई
सीस पे हाथ मोहे प्रति क्षण राखियो होवै नाम कमाई
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