हा नाथ
फोरि दीजो देह को मटुकी या हरि रस न आवै
रसना काहे राख्यो विरथा ही जो हरिनाम न गावै
हिय अंतर हरि प्रेम न उपजै जगत पदार्थ भावै
लोभी अति मूढ़ होऊँ भारी जो ऐसो विष्ठा खावै
कियो ढोंग जगत माँहिं भारी झूठो भगत स्वांग बनावै
नाथ किस विध होवै छुटकारो बाँवरी अपनी बात बतावै
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