इश्क़ की बेकरारियाँ
जाने क्यों होती ऐसी
इश्क़ की बेकरारियाँ
भूल भी नहीं पाते तुमको
रहती हैं क्यों खुमारियाँ
बेचैनियां सी पल पल की
आज की भी कल कल की
खुद में खुद को ढूंढना
खुद का ही ऐसे खोना
सिसकियां भीतर रहती
छिप छिप सबसे रोना
वो अश्कों की बरसातें
कुछ भीतर सुलगता सा
तेरी यादों का दरिया
बहता कभी उफनता सा
हंसना रोना गाना लिखना
सबमे तेरा एहसास हुआ
कभी लगे तुम दूर हो कितने
कभी सब दिल के पास हुआ
कभी लगे सब बिखरा बिखरा
बह गया सभी बरसातों में
लगता है भीतर तक खाली
अब रोना बाकी रातों में
Comments
Post a Comment