लाखों दिए
लाखों दिये जले हैं बाहर हम दिल को जलाकर बैठे हैं
अपने सब अरमानों की हम राख बनाकर बैठे हैं
कोई जश्न कोई खुशी नहीं यहाँ अश्कों की बरसाते हैं
दूर जहाँ से होकर अपनी चिता सजाकर बैठे हैं
झूठी सी मुस्कान लबों पर हमने ऐसे ओढ़ी है
दिल मे गहरे दर्द हैं कितने पर्दा गिराकर बैठे हैं
कोई क्या जाने हाल ए दिल न जिसको मर्ज ए इश्क़ लगा
जिसकी कोई दवा नहीं वह रोग लगाकर बैठे हैं
किसको अपना दर्द सुनाएँ इस बस्ती में कोई आशिक ही नहीं
बहते हुए अश्कों को हम आंखों में छिपाकर बैठे हैं
जाने क्यों खामोश भी नहीं होती यह कलम मेरी
मचलना ही फितरत इसकी हम कितना समझाकर बैठे हैं
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