मलिन पतित

मलिन पतित अधम जन भारी हिय हरिभजन लगायो न
विषय वासना उर अंतर ऐसो स्वाद भजन को पायो न
लौटत रहयों दिवा रात्रि सूकरी सम हरि बीथन जायो न
जगत के काम विकार न छूटे गुण गान हरि को गायो न
बैठत रहयों मद मत्सर निशदिन हरि को हिय बैठायो न
कौन विध मुख अपनो दिखाय बाँवरी पापन सों शरमायो न

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