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Showing posts from 2022

प्रेम

प्रेम कितना विचित्र शब्द है न प्रेम  नहीं बांध सकते शब्दों में इसे सागर को क्या बांध सकते सागर की उस मौज को कहने को उठती हैं न लहरें भी ऐसे ही शब्द उठते हैं रसिकों के हिय से उनकी वाणी झरण..... एक एक शब्द रस रस रस   प्रेम कितना स्वतंत्र है किन्ही हदों में नहीं बांधता पर प्रेम की कोमल डोरी से बांध लेता है बड़ी बड़ी रीतियों रिवाजों रस्मों से परे इस प्रेम की सत्ता कभी पक्षी बन उड़ने को तैयार कभी जड़ भाँति सुप्तावस्था कभी नृत्य में भरती प्रेम की मौज कभी सिसकता रात रात भर बड़ा विचित्र प्रेम है जी कोई कायदा ही शेष न रहा जैसे मुक्त कर दिया सबसे कोई ज्ञान विज्ञान नहीं प्रेमी का विज्ञान  स्मृत रहो बस तुम बस तुम भीतर ही भीतर सब कोई उत्सव में भरी झूम होकर झूमता प्रेम कभी कभी हृदय पर भी ताप से फफोले लिए घूमता प्रेम विचित्र है प्रेम अपरिभाषित है प्रेम मूक संवादों में भी बोलता यह प्रेम समझ से भी परे जैसे कैसे समझाऊँ कैसे समझूँ बस सागर की लहरों में जैसे कोई सँग सँग बह जाए ऐसी स्थिति  क्या करूँ जो तुम चाहो कहाँ जाऊँ जहाँ तुम चाहो क्या बोलूँ जो तुम सुन्ना चाहो कहाँ क्या कैसे इसका उत्तर तुम...

कर लेते चोरी

कर लेते चोरी एक यह भी काश एक चोरी कर लेते हुई नही न पर क्योंकि चुराया तो नवनीत जाता है न जो तुम्हें कोमलता मधुरता स्निग्धता दे जो रस हो तुम्हारा ही तुम्हीं से छुटा हुआ तुम्हारी ही प्रतीक्षा में तुम्हारा होने को व्याकुल हाँ मथती है न गोपी नित नित नव नव रस तुम्हारे लिए ..... तुम्हारी ही प्रतीक्षा में ..... वही करोगे न चोरी कोई सुख नहीं मुझमें तुम्हारा कोई रस नहीं मुझमें तुम्हारा कोई सेवा नहीं मुझमें तुम्हारी कोई रँग नहीं मुझमें तुम्हारा ....... बिखरन सी बस  बुने हुए कुछ ताने बाने समस्त सुखों की अभाव अवस्था सब रसों की अभाव अवस्था मैं क्या दूँ तुमको और तुम भी क्यों करो चोरी ठहरो ठहरो जाँच लो परख लो लौट जाओ आज लौट ही जाओ मत करो चोरी छिप जाऊँ कहीं छिप जाऊँ....

विस्मृति

विस्मृति कैसे भूल सकता है कोई अपने प्राणों को  विस्मृति कितनी गहन विस्मृति अपने प्राणों की विस्मृति सत्य नहीं सत्य नहीं यह असत्य हमारा तुम कभी प्राण हुए ही नहीं कभी हुए ही नहीं होते तो विस्मृति कैसे होती प्राणप्रियतम तो रहते हैं स्वास स्वास में हो गई विस्मृति कितनी गहन विस्मृति प्राणों में कोई क्रन्दन ही नहीं तुम्हें भूलने का फिर प्राण ही क्यों क्यों शेष हे प्राणेश  लौटा दो न निज नाम निज नाम निज नाम

हे दामोदर

हे दामोदर कैसे बांध सके  तुम्हें कोई कोई जप कोई तप कोई साधना नहीं नहीं..... तुम किसी साधन से नहीं मिलते... किसी सामर्थ्य से नहीं मिलते... तुम तो बंधते हो मिलते हो तो मात्र प्रेम से.... प्रेम से... और प्रेम शून्य की क्या गति अवगुण की खान की क्या गति.... गति मति रति हीन ..... नहीं तुम्हें बांधने की सामर्थ्य नहीं हे दामोदर ! हे दामोदर ! तुम्हीं बांध लो अपने प्रेम रज्जु से तुम ही बांध सकते केवल तुम.....

दिल की बात

तुमको जो लिख सकें वो लफ्ज़ भी तुम्हारे होंगे मुझमें मेरे लफ्ज़ भी खामोश से ही रहते हैं अपनी तो जिंदगी निकल जाती तुझको सोचूँ कभी यह तो इश्क़ है तेरा जो मुझको भूलने नही देता चुन चुनकर कुछ लफ़्ज़ों को कुछ बुनने लगती हूँ जैसे फूल ही उठा रही सजाने को तुम्हें

ये इश्क़ तेरा

मुझमें जो उछलता है ये इश्क़ तेरा सांसों में भरता है ये इश्क़ तेरा हुई पगली सी दीवानी सी कुछ खोई सी बेगानी सी जो मुझमें उतरता है ये इश्क तेरा मुझमें जो.... यह मदहोशी सी है इश्क़ की यूँ खामोशी सी है इश्क़ की फिर बातें करता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कभी अश्कों की है कतार लगी तेरे नाम की बस यूँ पुकार लगी पल पल में सँवरता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कभी लफ़्ज़ों में यूँ बहता है तेरे इश्क़ की बातें कहता है नस नस में भरता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो...... कोई ग़ज़ल लिखूँ कोई गीत लिखूँ तू ही तो बता क्या मनमीत लिखूँ बस लिखता रहता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कुछ ठहर लूँ कुछ थम जाऊँ कुछ सुन लूँ मैं फिर कुछ गाऊँ जाने क्या करता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो....

नित्य रमण

हाँ खोज ही लेते हो तुम मिलन का नव नव बिन्दु रमण का  नव नव उल्लास एक एक नाम तुम ही तो हो एक एक स्वास तुम ही तो हो कहाँ खोजूँ किसे पुकारूँ यह स्वास ही नाम बने भीतर बाहर  आती जाती स्वास सँग तुम्हारा नाम नहीं नहीं तुम ही भीतर बाहर  आते जाते मुझमें रमण करते लहराते हुए नित्य आंनद से भरता तुम्हारा एक एक स्पर्श मेरी स्वासों में तुम्हारे नाम का तुम्हारा ही रमण रमण रमण हृदय की प्रत्येक धड़कन सँग यह व्याकुल स्पंदन तृषित स्पंदन छूकर भी प्यासा और और छूने को मिलकर भी अधूरा सा फिर विस्मृति गहन विस्मृति रमण की विस्मृति नित्यानन्द के स्पर्श की विस्मृति पुनः पुनः रमण की लालसा नित्य वर्धन  नित्य आंनद नित्य रमण

चेतना का भजन

चेतना का भजन प्रत्येक चेतना उस चैतन्यता की ही नित्य बिन्दु है,प्रत्येक चेतना का नित्य चैतन्य में रमण ही नित्यानन्द है, यही चेतना का भजन है, नित्यानन्दित होना । नित्यानन्द के स्पर्श से ही चेतना उस परम चैतन्यता में रमण करती है। यही क्षण क्षण का नित्यानन्दित रमण ही चेतना का नित्य स्वरूप है।

कभी कभी

कभी कभी हाल ए दिल ऐसा होता है तेरा ही इश्क़ मेरी आँखों में आकर रोता है सच है कि मुझको इश्क़ कभी हुआ ही नहीं तेरा ही इश्क़ मुझमें सपने सभी सँजोता है कभी कभी..... जाआगे तुम भी कहाँ रूठकर मुझसे दूर भला मुझको तेरे इश्क़ का एहसास मुझमें होता है कभी कभी...... मेरे ही होकर रूठते हो मुझसे ही तुम क्यों कौन मुझमें आकर लड़ी अश्कों की पिरोता है कभी कभी....... चुरा लो मुझको कि थोड़ी सी मैं रहे न बाकी तेरे दामन से लिपटकर ही सुकून होता है कभी कभी..... थाम लो थोड़ा मुझे कि बह न जाऊँ तूफानों में चोट लगती है मुझे और दर्द तुमको होता है कभी कभी..... सच है हर दर्द से है इश्क़ का दर्द बुरा जितना बहता है अश्क़ हो मीठा होता है कभी कभी...... कोई दवा न कोई दुआ लगती है फिर उसे हाल वही जाने जो इश्क़ का मरीज होता है कभी कभी...... इश्क़ हो तुम और तुमसे ज्यादा है किसको पता इश्क़ के बीमार का मरहम ही इश्क़ होता है कभी कभी..... कितना बेचैन करके रखा है मुझको मुद्दत से कौन जाने हाल ए दिल कैसा होता है कभी कभी..... आज बह जाऊँ न मैं कहीं देखो लफ़्ज़ों में एक एक लफ्ज़ आज मेरा लिखते रोता है कभी कभी.... इश्क़ के लफ्ज़ भी होते हैं रंगों से भरे इ...

तुम ही तुम

तुमसे है तुमसे है ज़िंदगी का सफ़र तुम ही तुम बस हमसफ़र दिन भी तू रात तू .... दिल में उठी बात तू.... रह जाऊँ बस तेरे पहलू में छिपकर तुम ही तुम बस हमसफ़र अश्क़ तू हर खुशी भी तू .... मुझको मिली यह ज़िन्दगी भी तू.... ले चलो न मुझको मुझसे ही चुराकर तुम ही तुम बस हमसफ़र इश्क़ तू इबादत भी तू..... हर दुआ तू हर मन्नत भी तू..... रख लूँगी तुमको तुम्हीं से माँगकर तुम ही तुम बस हमसफ़र ख़ामोशी तू हर बात तू..... सांसों की हर मुलाकात तू..... जीती हूँ बस नाम तेरा लेकर तुम ही तुम बस हमसफ़र तुम ही तुम

नागरी नागर

*नागरी नागर* नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागरी प्रेमोन्मत विलसित जोरि रसमय विपुल प्रेम सागर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर मदनरँग रँगीली जोरि रस विलासी  नवकेलि उजागर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर दोउ चन्द चकोर दोउ मदनमत्त केलिरस प्रभाकर नागरी नागर नागरी नागर..... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर रसिक प्रवीण बंक चितवन अलकलड़े रस सुधाकर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर रसवीथिन क्रीड़त रसमय नवल वपु रस सौदागर नागरी नागर नागरी नागर....

परिधियाँ

परिधियाँ एक शून्य की परिधि पर खड़ी निहार रही कुछ कौतुक जो हुए जीवन सँग..... कुछ रँग जो बिखरे थे... कुछ फूल जो महके कभी.... कुछ तितलियाँ उड़ती हुई.... कुछ बारिशें छूती हुई..... नज़र लौटी पुनः अपने पर शून्यता की एक परिधि  जिसके भीतर हूँ मैं और परिधि एक रेखा  जिसे पार करना मेरा साहस मेरा बल  नहीं मुझमें कोई बल नहीं दिखती है बस एक परिधि और एक आशा कभी उस परिधि को पार कर जाने की तुम्हारी होकर  तुम्हारे सँग.... इसी आशा में  निहारती  अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह परिधियाँ...... मेरी ओर की....

स्पर्श

वो स्पर्श तुम्हारा स्पर्श क्या वो माटी चंदन न बन जाती जिसे तुम्हारा स्पर्श हो चंदन होकर कोई सुख  तुम्हारा ही तुम्हारे ही स्पर्श से... क्या वो कोयला  वही कालिमा भरा रहेगा या अमूल्य हीरा कोई तुम्हारे स्पर्श से क्या लोहा  लोहा ही रहेगा तुम्हारा स्पर्श पारस सम स्वर्ण न करेगा क्या वो पाषाण पाषाण ही रहेगा जिसे मिला तुम्हारा स्पर्श न वो पाषाण नहीं तुम्हारा ही स्वरूप कोई कौन रूपांतरण कर सके एक स्पर्श तुम्हारा स्पर्श क्या स्पर्श किये तुम इस मलिन चेतना को क्या यह मलिन ही रहेगी आवरणों में लिपटी मिला था कभी....  एक स्पर्श..... तुम्हारा स्पर्श.....

ललित तृषा

थी तो मैं एक पाषाण ही हाँ पाषाण कैसा पाषाण जो वर्षों लुढ़कता रहा इधर से उधर यहां से ठोकर वहाँ से ठोकर फिर दृष्टि पड़ी मुझपर हाँ इसी पाषाण पर एक मूर्तिकार की जिसकी सौन्दर्यमयी दृष्टि निहार पाई  कोई ललिताई भी आश्चर्य इस पाषाण में भी उठा लिया अपने श्रीकर से कोई मूर्ति गढ़ने हेत अब अपने राग से अनुराग से सहेज सहेज कभी प्रहार तो कभी दुलार से नित्य मुझे वह कर  सहलाते दुलारते गढ़ते हैं कोई ललिताई जो उनकी दृष्टि में है तो अब मैं पाषाण न रहूँगी हो जाऊँगी न उनका सुख कभी न कभी कर रहे न मुझ पर  नित्य नव अनुराग लेपन नित्य रस फुहार भीगती भीगती सी अब मैं..... उनकी कोई ललित तृषा होने को ..........

मैं प्यारी अपने प्रियतम की

मैं प्यारी अपने प्रीतम की प्रीतम मेरो नन्दकिशोर प्रेम रस बरसावे अति प्यारो साँझ होय चाहे भोर प्रेम सुधा पीवत रहूँ सखी प्रीतम प्रेम छलकावे नैनन प्रेम मदिरा सो भीजै पीवत ही रह जावे अंग अंग प्रेम रस बरस्यो व्यसन प्रेम को लगावे जाको नन्दनन्दन सखी लूटे कौन विधि बच पावे बहते निर्झर में संकलित 2016 का लिखित भाव

तुम्हारा प्रेम

प्रेम  तुम्हारा प्रेम विष है या अमृत अमृत नहीं  विष ही चखा दो अमृत पान की योग्यता कहाँ इस मलिन चित्त की विष  हाँ विष ही दो जीवन या मरण बस मरण ही दो विष तो एक बार ही मारेगा न तुम्हारे प्रेम का विष  नित्य मारेगा क्षण क्षण मारेगा हाँ यही विष दो यह लोभी चित्त जो जन्मों जन्मों ढूँढ़ रहा न कोई मधुरता  कोई विश्राम पर नही ढूँढ पाया यही विष इसकी दवा होगी दो न अपना विरह दो न प्राणों का वह क्रंदन दो न अपने नाम का लोभ दो न कहाँ सामर्थ्य है इस चित्त की  जो तुम तक आ सके तुम्हीं सामर्थ्यवान बलात कृष्ण करने वाले हे कृष्ण  हे कृष्ण करो न सार्थक  अपना नाम हे कृष्ण  हरे कृष्ण.....

चन्द्र दर्शन

चन्द्र दर्शन  किसे कहा तुमने नभ के चन्द्र को नहीं नहीं मेरे हृदय के चन्द्र मेरे निताई चाँद हाँ यह भी छिपे ही रहते मुझसे जैसे तुम्हारा चन्द्र छिप जाता तुमसे बादलों के पीछे यह भी छिपे ही रहते मेरे ही हृदय में कहीं तुम्हारा चन्द्र तो कुछ क्षण बाद  प्रकट भी हो जाता न देखो मेरे चन्द्र  नहीं आये मेरे चन्द्र मेरे निताई चाँद वो क्या छुआ था तुम  नहीं तुम तो नहीं थे छिपे ही रहे मुझसे

कीर्तन

कीर्तन कीर्तन मात्र शब्दों का ही उच्चारण नहीं, कीर्तन एक प्रवाह है रस की हिलोर, प्राणों के मंथन से गुंथित हुआ नाम प्रवाह , प्राणों को ही पुकारता हुआ.... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे....   कीर्तन में प्राणों से उठती पुकार और प्राण भिन्न कहाँ हैं, अभिन्न हो गए, नाम ही गुंजायमान हो रहा , नाम ही बह रहा रस होकर , नाम ही प्रवाहित हो रहा दसों दिशाओं में ...... प्रेम की गूँज, प्रेम का आवेश, प्रेम की तरंग, प्रेम का उन्माद है कीर्तन , जो इस तरंग में गया बस रँग गया , पकड़ा गया, बह गया इसी प्रेमोन्माद में , अब यह उन्माद बहता बहता महासागर की भाँति तरँगायमान हो रहा , जहां रस की हिलोर , प्रेम का उन्माद समेटते न बने रोक सकते हो तुम महासागर को, रोक सकते हो तुम उस महासिन्धु को , कीर्तन का उन्माद भी इसी भाँति देह की एक एक रक्त कन्दरा में उफनता हुआ , हरे कृष्ण हरे कृष्ण..... नाम का यह उन्मुक्त वर्षण न थमें थमे जैसे कहीं प्राणों को आहार ही मिल रहा , चेतना को आंनद मिल रहा , चैतन्य के स्पर्श से ....  चैतन्यता का स्पर्श है कीर्तन प्राणों का मंथन है कीर्तन प्र...

मूक वार्ता

तुम्हीं तो हो हाँ तुम पवन होकर शीतल स्पर्श देते रस से भरा स्पर्श कैसे मूक वार्ता करते जैसे शेष सब जड़ हुआ उस क्षण उस क्षण बस तुम्हीं तो थे वो कम्पन स्पंदन सिहरन नेत्र जैसे हर ओर से हट एक जगह ही सिमटना चाहते कभी रसभार से मुँद जाते तो कभी पुनः निहारन को व्याकुल अपने हृदय की धड़कन ही  समेटते नहीं बनती जैसे ठहर जाएं यह क्षण ऐसे ही बस तुमको निहारते तुमसे बतियाते एक बार तुम्हारा स्पर्श हुआ फिर जहाँ भी निहार बनती बस तुम्हारे ही गीत सुनते नाचते वृक्ष की लताएँ  क्या क्या कह रही मुझसे वो खगों का कलरव यह रसावेश न पकड़ते बनता न छूटते बनता बस खोए रहना चाहती  ऐसे ही तुमको निहारते तुम्हारी वार्ताओं में कभी छूट जाती यह वार्ता तो हृदय पुकार पड़ता कहाँ खो गए तुम फूट पड़ता यह रुदन फिर एक एक अश्रु बन  तुम ही स्पर्श करते हे प्रेम हे प्रेम भर जाओ न भीतर ..... यह वार्ता चलती रहती अनन्त तक....

एक बूंद तृषा

जड़ हाँ जड़ ही तो हूँ नित्य नित्य गहरी होती जड़ता संसार कीच में धँसती धँसती सम्पूर्ण अभाव चैतन्य हीन दशा ऐसी जड़ता  जहाँ प्रवेश ही नहीं चेतना का और तुम चैतन्य नित्य चैतन्य बद्ध जड़ताओं से मुक्त करने हेत जड़त्व को चैतन्य करने हेत काट दो न यह जड़ता ऐसी जड़ता बद्ध दशा कि चैतन्य स्पर्श की एक बिन्दु लालसा भी न लगी केवल और केवल तुम्हारा स्पर्श  ही इस जड़त्व से मुक्त कर चैतन्यता की बिन्दु प्रदान कर सकता हे महाचैतन्य  हरे हरि हरण करो  हरे हरि हरण करो प्रदान करो एक बूंद चैतन्य तृषा  एक बूंद चैतन्य प्रेम 

फिरसे आज अश्कों का

फिरसे आज अश्कों का सैलाब आया है न बहो न बहो जाने कितना इन्हें मनाया है एक एक कतरा अश्कों का दर्द देता है उनको दिल भी बेबस सा हुआ न कुछ कर पाया है फिरसे आज ..... बड़े बेबस से रहे हम खुद पर नहीं काबू जैसे रँग अपना नहीं बस कोई और ही रँग छाया है फिरसे आज...... कर करके वादे अब तलक बहुत तोड़े हैं हमने थामते थामते अश्कों को कलम ने गाया है फिरसे आज ...... अब खुद से ही छिप जाने की ख्वाहिश बाकी है जो ना पास था पास कभी मुद्दत से यूँ दिखाया है फिरसे आज..... चलो खामोश करदो मुझको और यह कलम मेरी मेरी ही बेवफ़ाइओं का ज़िक्र अब तलक गाया है फिरसे आज..... देखो अब जुबाँ पर तेरा नाम भी नहीं आता है जो तुमको खोया फिर इस जहाँ में क्या पाया है फिरसे आज.....

आज भी....

 आज भी.... आज भी रात जाएगी बस आँखों में रो रहा है दिल पर इन आँखों में कोई अश्क नहीं  बह रहे थे जो मुद्दत से मेरी आँखों से आज मेरे अश्क़ भी छोड़कर गए मुझको  न तो ज़िन्दा हूँ न अब तलक मौत आई न तुम मिले न तुमसे मिलने की उम्मीद गई माना काबिल नहीं हूँ साहिब इश्क़ के अब तलक इश्क़ तुम हो हमने यह बात चलाई ही नहीं जाने क्या उतर रहा है आज इन लफ़्ज़ों में अपनी बातें यूँ खुलेआम लिखाया न करो चलो नहीं माँगती तुमसे इन बेचैनियों का हिसाब हो दवा तुम ही तुमसे से तुमको नहीं मांगा मैंने

चाहती हूँ तुमसे

 चाहती हूँ तुमसे... थोड़ा सा दर्द कुछ अश्क दे दो मुझे आज जीने का बहाना चाहती हूँ तुमसे मरना आसान है मुश्किल है जिंदा रहना चन्द सांसों की मोहलत चाहती हूँ तुमसे दे दो रिसते हुए से थोड़े ज़ख्म तोहफ़ा सिसकियों का नज़राना चाहती हूँ तुमसे कर दो इतना खाली कि भीतर तुम ही रहो रूह के मालिक रहो इतना चाहती हूँ तुमसे हूँ कुछ बेचैन सी पर मुझको न थोड़ा चैन मिले यही इश्क़ की बेचैनियां चाहती हूँ तुमसे न देना मौत बस सुलगती सी ज़िन्दगी देना नहीं दवा बस सिर्फ दर्द ही चाहती हूँ तुमसे कतरा कतरा मेरे लहू का बस पुकारे तुम्हें मेरी खामोशी भी पुकारे इतना चाहती हूँ तुमसे

बस तुम

बस तुम और क्या लिखूँ जो तुम जानते ही न हो दिल में रहते हो पर मुझसे छिपे रहते हो जानते हो बात सब बिना ज़ुबान से कहे छिप छिप कर दिल में ही कहते रहते हो इक नज़र भर देखने को है प्यासी यह आँखें खेल मुझसे छिपने छिपाने के खेलते रहते हो चलो मैं न बिक पाई पर तुम खरीद लो मुझको हो सौदागर इश्क़ के तुम सौदे करते रहते हो पढ़ लो इक बार मेरी आँखों में भी चेहरा अपना मेरे होकर भी मुझसे क्यों अजनबी रहते हो सच है अब सम्भलती नहीं मेरी धड़कनें मुझसे बनकर अरमान मेरी रूह में मचलते रहते हो क्या छिपाया है बोलो मैंने तुमसे हाल ए दिल तुम ही लिखवाते हो और तुम ही पढ़ते रहते हो

तुम क्यों हो

तुम क्यों हो... यह जो बेचैनी सी छाई है रूह पर मेरी चलो बताओ कि इतने बेचैन तुम क्यों हो कहाँ चली गई हैं नींदें मेरी आँखों की चलो बताओ कि इतना जागते तुम क्यों हो मैं तो खामोश सी रही हूँ बड़ी मुद्दत से चलो बताओ मेरी कलम से लिखते तुम क्यों हो है तो ज़हर से भी कड़वा मिज़ाज मेरा चलो बताओ इतना मीठा बोलते तुम क्यों हो सच है नहीं काबिल थी इश्क़ के मैं कभी चलो बताओ मुझसे इतना इश्क़ करते तुम क्यों हो कहाँ जाकर मुक्कमल होगी यह तलाश मेरी चलो बताओ मेरे ही दिल में छुपते तुम क्यों हो

सुन लो

सुन लो चलो आज हिसाब लो मुझसे मेरी मोहब्बत का तेरे हिस्से में सारा इश्क़ मेरे हिस्से बेवफाई आई जानती हूँ तेरे ही अश्क बहते हैं मेरी आँखों से एक एक अश्क में कैसे इतनी तरावट आई क्यों चलती हैं मेरी साँसे बिना पुकारे तुझे सुनते हैं कि इश्क़ में इक साँस न खाली आई  सुना है इश्क़ में बाकी वजूद नहीं रहता कोई आईने में क्यों मुझे नज़र मेरी तस्वीर आई नहीं नहीं नहीं अब तलक कोई इश्क़ हुआ मुझको अब तलक नहीं इस रूह पर इश्क़ की बेचैनी छाई अब बरस जाओ इस बंजर सी जमीं पर बादल होकर सुलगते से इन जख्मों की बन जाओ तुम्हीं दवाई

कैसे

कैसे ......... मुद्दतों से थमी थमी सी थी ज़िन्दगी मेरी अब उठते यह इश्क़ के तूफान संभालूं कैसे यह भी सच है कि फलसफा ए इश्क़ समझी नहीं तुम जी कहो कायदे इश्क़ के निभा लूँ कैसे सुना है बहती हुई नदियों का रुकना ठीक नहीं नहीं हिम्मत फिर इन लहरों को उछालूं कैसे रोज ही इक इक चिराग बुझता है मेरी महफ़िल का बढ़ते हुए अंधेरो को रोशनी में सजा लूँ कैसे  दिन ब दिन टूटता ही जाता है सब्र इस दिल का नहीं बस में मेरे यह कम्बख़्त मना लूँ कैसे चन्द परदों में छिपा रखे हैं हालात ए दिल अपने तू ही बता इक झटके में इन्हें हटा लूँ कैसे मैं तो खामोश हूँ जाने भीतर कौन उछलता रहता है दर्द ए दिल फिर अपनी जुबां से मैं गा लूँ कैसे मेरा मर्ज़ तू ही बस तू ही दवा है मेरी इतना मीठा है दर्द ए इश्क़ छुड़ा लूँ कैसे

लहरें और सागर

लहरें और सागर कुछ क्षण पूर्व .... शान्त सा सागर फिर... उस सागर को अनन्त क्रीड़ाएँ विलसाती लहरें एक ही ज्वार से उठी लहरें जैसे खेलने लगी उस अनन्त सागर में आती लहरें जाती लहरें खेलती लहरें न न जल की लहर न उस प्रेम सिन्धु की हिलोरित लहरें एक एक लहर से उठता वह स्पंदन कैसे समा सके हृदय में  उस अनन्त सागर के यह खेल कुछ तो उछलेगा ही न कुछ तो मचलेगा ही न हे सिन्धु हे रस सिन्धु डुबो दो न इस सागर के तल तक जहाँ पुनः बाहर ना आ सकूँ डूबती रहूँ और गहरे  और गहरे भीतर भीतर और भीतर डूबा दो न  हे अनन्त हे अनन्त सिन्धु ......... अपने ही रस में गुमशुदा एक बिंदु को तुम्हारा ही बिन्दु एक रस बिन्दु

तेरा इश्क़

जब जब दिल यह पिघलता सा है इन आँखों से कुछ बहता है  इक टीस सी उठती है तेरे बिना जीने में दिल यही कहता है नहीं रोक पाते हम कभी इस दिल में उठते हुए तूफानों को  कुछ आँखों से बहता है और कुछ दिल लफ़्ज़ों में कहता है सच है सुकून न मिला है इस रूह को मुद्दत से अब तलक मेरे ज़िक्र में मेरे फिक्र में बस नाम तेरा ही रहता है यह भी सच है कि नहीं इश्क़ मुझे करना आया है कभी पर तुमको इश्क़ है यह सुकून रूह को रहता है कब तलक भीगी सी सिसकती सी  रहेंगी यह साँसें हूँ मैं खामोश बस तेरा इश्क़ ही लिखता रहता है

हे श्रृंगारिणी

हे श्रृंगारिणी हे श्रृंगारिणी  हो जाऊँ मैं कोई मोती आपकी माला का कोई नूपुर आपके चरणों में पड़ी नूपुर का हाथों पर जमी कोई जावक कणिका या अधरन पर बिखरी लालिमा कर्णफूल में झूमता मोती या मस्तक पर सजती बेंदी कटि किंकणी की कोई रुनझुन और कपोलन पर बिखरी लाली अलक कोई कपोलन पर नृत्यमयी असन वसन का कोई धागा सहज अनुराग प्रिया सँग लागा हे श्रृंगारिणी हे श्रृंगारिणी करो कोई निज चरण किंकरी करो कोई निज श्रृंगार लड़ैती

वृथा भई सब स्वासा

हरिहौं वृथा भई सब स्वासा घोर कल्मष क्लेश हिय माँहिं कबहुँ होय परकासा नाम भजन की बात न निकसै स्वांग बनायो भारी मीठो मीठो रूप बनावै बाँवरी भीतर खारी खारी झूठ कपट मिथ्या बकवाद यही बाँवरी दिन रैन लगी सोई रैन दिवा पाँव पसारै भजन कौ क्षणहुँ न जगी

भीगी सी इक रात

भीगी सी इक रात हमने आज फिर बिताई है जाने क्यों दिल ने तेरे आने की उम्मीद लगाई है कतरा कतरा लहू का तुझसे मिलने को प्यासा है रिसते हुए सब ज़ख्मों की तू ही एक दवाई है भीगी सी.... मुद्दत से न तुम आए न कोई इशारा समझे हम जब इश्क़ नहीं है इस दिल में फिर क्यों उम्मीद जगाई है भीगी सी..... काश बहते बहते इन अश्कों सँग ज़िन्दगी भी बह निकले सुलगते से इन अरमानों पर क्यों बौछारें बरसाई हैं  भीगी सी..... चलो बहुत हुआ यह खेल अभी मुद्दत से तुमने खेला जो  सब जीत तेरी बस हार मेरी अब जान पर बन आई है भीगी सी...... सच है सच है नहीं काबिल हम तेरे इश्क़ के कभी मुझसे मिला भी क्या है साहिब बस केवल रुसवाई है भीगी सी.... चलो बहने दो इन अश्कों को पानी से लहू के कर देना तेरा नाम निकले हर साँस के साथ बस यह उम्मीद लगाई है भीगी सी.....

उत्सव

उत्सव कैसा उत्सव ताप का उत्सव हाँ आज यही उत्सव सजेगा भीतर का उछलता लावा लफ्ज़ बन जाने कहाँ कहाँ बिखरेगा हाँ भर दो सब ताप यहाँ भीतर की शरद तुम हो जाओ सूखा मारुथल इक तपता सा मैं पावस की झरन तुम हो जाओ चलो सारी अग्न मैं पी जाऊँ शीतल सा सफर तुम हो जाओ तुमको ही रँगना है रंगरेज मेरे इश्क के रंगों में तुम भर जाओ

मोतिन कौ श्रृंगार

यह मोतिन कौ श्रृंगार न है यह तो गौरांगी की गौरता का श्रृंगार है। *मोतिन धरै पाग मोतिन कौ धरै हार* *मोतिन कौ कुण्डल सोहै मोतिन कौ सगरौ श्रृंगार* *मोतिन कौ बाजूबन्द धरयो मोतिन  कौ कँगन* *मोतिन कौ पायलिया झूमै मोतिन कौ कमर किंकिन* *मोतिन सौं उज्ज्वल पाग धरी मोतिन कौ गलहार* *बाँवरी कबहुँ होत एक मोती करत रमण प्राण निज श्रृंगार*

तेरा शहर

*तेरा शहर* बेरँग सी ज़िन्दगी है जो रँग चढ़ा सब उतर गया रहा रेत सा फिसलता लम्हा लम्हा गुज़र गया बड़े रँग हमपर उछले बड़े रँग हम सम्भाले नहीं कोई समेट पाए जो आया सब बिखर गया दो पल ही ज़िन्दगी थी दो पल ही जी लिए हम अब हाथ खाली अपने जो आया सब किधर गया नहीं मुझको इश्क़ नहीं है क्यों वो मानते नहीं हैं बड़ा छोटा रास्ता था लो आया लो सफ़र गया नस नस में क्या भरा है जाने क्या उछल रहा है नहीं कोई नशा बाज़ारी जो चढ़ा फिर उतर गया जाने कैसी है खुमारी जाने कैसी यह कशिश है वो कहाँ सलामत लौटा जो इक बार तेरे शहर गया

लहरें

*लहरें* इश्क़ के समन्दर में उठती हैं कई लहरें यह कौन सी लहर है यह कौन सी लहर है लम्बी सी रात गुज़री अश्कों को पीते पीते अब कौन सी सहर है अब कौन सी सहर है आदत सी हो गई है थोड़ा रोज टूटने की बढ़ता ही जा रहा है यह इश्क़ का कहर है अब तक भी न हुआ है नज़रों से नज़र मिलना सबसे चुराकर नज़रें फिर देखती वो नज़र है थोड़ा हँस के गुजरा पीछे थोड़ा रँगे मलाल भर कर चलता ही जा रहा है जो इश्क़ का सफ़र है जाने क्या पिया था मैंने नहीं होश वापिस आया मुझको ही मुझसे मिलने की न हुई कोई ख़बर है जाने क्या खुमारी छाई कोई चोट करदो मुझपर थोड़ा होश तो सँभालूँ ये मदहोशी का ही शहर है यह दर्द टीस देता हर ज़ख्म का निशां है छाई खुमारी कैसी उनके इश्क़ का असर है नहीं सच में इश्क़ मुझको यह तुम उन्हें बता दो नहीं काबिल इक नज़र के क्यों उनको सब फिक्र है नहीं अब सम्भल रहा है भीतर उछल रहा है कोई दर्द है कसकता मीठा इश्क़ यह ज़हर है जाने क्या लिख रही है यह कलम मेरी पागल अश्कों को लज़फ़ करके करती इधर उधर है

कलम मेरी

*कलम मेरी* आज कुछ बहकर कुछ रोयेगी कलम मेरी मेरे अश्कों को लफ़्ज़ों में पिरोयेगी कलम मेरी कब से सो रही थी किन्ही कन्दराओं में आज बिखरे हुए अरमानों को सँजोयेगी कलम मेरी बहुत भर भर रखा था कुछ कुछ बहता रहा उठे हुए तूफान को अब बहायेगी कलम मेरी रोज नई चोट खाने की आदत हो गई मेरी कच्चे से ज़ख्मों को मरहम लगाएगी कलम मेरी हाँ कभी रो रोकर बुझाया था इस चिराग को अब इसकी तपिश को ही सह जाएगी कलम मेरी कुछ अश्क ऐसे भी होते हैं जो आँखों से बहते नहीं ऐसे ही अश्कों को लफ़्ज़ों में भिगोएगी कलम मेरी

बाँध सकोगे

बाँध सकोगे देह.... देह नहीं हूँ मैं चैतन्य झरण हूँ मैं चैतन्यता का एक बिन्दु जो छूटा है उसी सिन्धु से केवल एक धरा तक सिमटा अस्तित्व नही मेरा देह समझो काटो तोड़ो मरोड़ो जो अपनी भोग सम्पति जानते वहीं तक पहुँच उनकी एक बिन्दु को क्या कर पाओगे जो जी रहा भीतर ही भीतर कहीं किसी मधुर विलास की रस कणिका होकर उनके ही पुष्प की पँखुड़ी उनकी ही लता का पुष्प उनकी ही जावक की लाली उनके मधु उपवन की सुगन्ध मधुर कुँज वन की मृगी मधुवत झरती अनुराग कणिका कोई रस श्रृंगार उनका नहीं मेरा जीवन बाहर नहीं जीवन तो प्राण सँग  भीतर ही कहीं भीतर ललित गौर कणिका प्राण रमण की देहरी पर बिछी ..... चैतन्यता की आकुल व्याकुल तृषित झरण

शेष क्यों

*शेष क्यों* नहीं मुझे प्रेम नहीं प्रेम होता तो प्राण तुम्हीं होते नहीं माना तुमको प्राण जो तुम वायु होते तुम बिन कैसे स्वास आता जो तुम जल होते तुम बिन कैसे जीवन होता नही नही तुम आहार भी न हुए प्राणों का हाँ पाषाण में प्राण नही होते नहीं होते पाषाण में प्राण तो शेष क्यों यह जीवन तुम नहीं तो जीवन क्यों प्राण भी शेष क्यों

राधारमण बिना कौन हमारा

राधारमण बिना कौन हमारा भटके जन्म जन्म जग माँहिं मूल यही बीचार बीचारा एक एक ठोकर जगति सौं लागि, हरि का नाम उचारा राधारमण एक ही सांचौ जाना झूठा जगति पसारा राधारमण राधारमण भज बाँवरी रमण ही सांचौ प्यारा हरि गुरु ही मीठो लगै जगति में कड़वा सकल जग सारा

मेरा धन

मेरा धन जानती हो न सखी मेरा धन क्या है मेरा धन मेरे प्रियाप्रियतम उनका नाम उनकी सेवा उनका सुख मेरा जीवन उनका सुख बने मेरी स्वास उनका सुख बने वही तो नित्य धन मेरा भौतिक धन की क्या कहूँ सखी आज है  कल न हुआ तो उसकी नित्यता कैसी सखी धन तो यह हमारे इनका प्रेम नित्य वर्धित धन क्षण क्षण बढ़ता धन इनका प्रेम इनकी कृपा इनका स्मरण और तुम क्या ले पाओगी देती ही रहोगी जब जब बात करोगी इनकी ही बात करोगी बढ़ाती रहोगी न मेरा धन इनका प्रेम इनका प्रेम जयजय श्रीश्यामाश्याम

इक तपिश

इक तपिश इक सुलगन सी बनी रहे तुम बिन हाँ इन साँसों का चलना भी भार हो नहीं आ रही न कोई पुकार नहीं उठ रही न कोई हूक बिना तुम्हें पुकारे निकल रहा जीवन हे प्राण हे रमण बिखरी सी मैं जाने कब से जाने कब तक सिमट न पा रही अब समेट लो बस समेट लो अब चेतना की यह बिखरन बस सिमट जाए  तुम तक ही गीले से रहें यह नैन बहता सा लावा  भीतर उछलता सा कुछ अधूरा सा कुछ तलाश कुछ जो पूरी न हुई जिसे भूले हुए भी  जाने जन्मों बीत गए छूटी थी न कहीं से बिखरी थी न कहीं से जान गई अब तुमसे हाँ तुमसे बस प्राण प्राण हे प्राण रमण अब न छोड़ना खींच रहे न बस पूरा सा खींच लो पूरे से तुम अधूरी सी मैं.....

एक पाषाण

पाषाण हाँ पाषाण सुप्त कई जन्मों से पाषाण सम जन्म जन्म की जड़ता इतनी गहरी खाई पार न करते बने बल सामर्थ्य  न न  बलहीन सामर्थ्यहीन पूर्णतः वही उठा लिए इस पाषाण को नित्य तराशने को जाने क्या बने तराशने पर वही जानें जो उठा लिए क्षण क्षण कुछ तराशना फिर सहलाना  पर पाषाण अभी पाषाण ही सुप्त पूर्ववत जाने कब ऐसी चोट पड़े कि भीतर से कुछ फूट पड़े जन्म जन्म से भीतर ही भीतर सुप्त नहीं जाग्रत है जिसकी मचलन है भीतर ही  बाहर केवल सुप्त एक पाषाण

ललित किशोरी ललित किशोर

ललितकिशोरी ललितकिशोर जयजय ललित वृन्दावन धाम नवलकिशोरी नवलकिशोर जयजय नवल वृन्दावन धाम रसिककिशोरी रसिककिशोर जयजय रसालय वृन्दावन धाम सुरंगकिशोरी सुरंगकिशोर जयजय  सुरंग वृन्दावन धाम मधुरकिशोरी मधुरकिशोर जयजय मधुरालय वृन्दावन धाम दुल्हिनीकिशोरी दुल्हुकिशोर जयजय रसालय वृन्दावन धाम नित्यकिशोरी नित्यकिशोर जयजय नित्यरस सदन वृन्दावन धाम पुलकितकिशोरी पुलकितकिशोर जयजय पुलकित वृन्दावन धाम सुरभितकिशोरी सुरभितकिशोर जयजय सुरभालय वृन्दावन धाम पुहुपितकिशोरी पुहुपकिशोर जयजय पुहुपित वृन्दावन धाम प्राणकिशोरी प्राणकिशोर जयजय प्राणधन वृन्दावन धाम

तुम जानो

तुम जानो ओ रँगरेज कैसे तुम रँगोंगे यह मटकी बार बार रँगी बार बार धुली सच्चे हैं न रँग तुम्हारे कैसे रँगोंगे तुम जानो..... गुलाबों में सजने का शौक है तुमको गुलाबों के साथ काँटे भी होते हैं न छिपे कहीं गुलाब के आसपास निभा सकोगे कांटों से तुम कैसे करोगे तुम जानो...... सुन्दर महलों के बाशिन्दे तुम जर्जर सी यह झोपड़ी मेरी कलुषता कल्मषता के अन्धेरे नहीं झिलमिल कोई उजियारा रह सकोगे तुम जानो...... खुशबुओं की पोटलियां भरे तुम महकते झूमते रँग बिखराते हा यह उड़ती सड़न की बदबू दबी कुचली जन्मों की कलुषता सह सकोगे तुम जानो..... बड़े सयाने तुम चतुर शिरोमणि कहाँ कर लिए प्रेम के सौदे देते देते नहीं थकोगे तुम पर यहाँ देने को कुछ नहीं पास बिगड़ा मेरा मामला तुम जानो...... तुम रहते झूमते मस्ती के देश यहाँ जलता घुलता बहता सा कुछ बुझा बुझा कुछ दबा सिसकता सा खामोशी में भी कुछ कहता तुमसे सुन सकोगे तुम जानो....... वेद शास्त्र स्मृतियाँ सब गाती तुम्हारे यश का गान अपार सुनाते सकल वेद वाणी रिझाते क्या सुनोगे तुम अटपटी सी बतियाँ समझ सकोगे तुम जानो..... बहुत ऊँचा है महल तुम्हारा चींटी सी सब हरकतें मेरी अपने दम से कभी छू न...