इक तपिश
इक तपिश
इक सुलगन सी बनी रहे
तुम बिन
हाँ इन साँसों का चलना भी भार हो
नहीं आ रही न कोई पुकार
नहीं उठ रही न कोई हूक
बिना तुम्हें पुकारे निकल रहा जीवन
हे प्राण हे रमण
बिखरी सी मैं
जाने कब से
जाने कब तक
सिमट न पा रही अब
समेट लो बस समेट लो अब
चेतना की यह बिखरन
बस सिमट जाए
तुम तक ही
गीले से रहें यह नैन
बहता सा लावा
भीतर उछलता सा कुछ
अधूरा सा कुछ
तलाश कुछ
जो पूरी न हुई
जिसे भूले हुए भी
जाने जन्मों बीत गए
छूटी थी न कहीं से
बिखरी थी न कहीं से
जान गई अब
तुमसे हाँ तुमसे बस
प्राण प्राण हे प्राण रमण
अब न छोड़ना
खींच रहे न बस
पूरा सा खींच लो
पूरे से तुम
अधूरी सी मैं.....
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