लहरें और सागर
लहरें और सागर
कुछ क्षण पूर्व ....
शान्त सा सागर
फिर...
उस सागर को अनन्त क्रीड़ाएँ विलसाती लहरें
एक ही ज्वार से उठी लहरें
जैसे खेलने लगी उस अनन्त सागर में
आती लहरें
जाती लहरें
खेलती लहरें
न न जल की लहर न
उस प्रेम सिन्धु की हिलोरित लहरें
एक एक लहर से उठता वह स्पंदन
कैसे समा सके हृदय में
उस अनन्त सागर के यह खेल
कुछ तो उछलेगा ही न
कुछ तो मचलेगा ही न
हे सिन्धु हे रस सिन्धु
डुबो दो न
इस सागर के तल तक
जहाँ पुनः बाहर ना आ सकूँ
डूबती रहूँ और गहरे
और गहरे
भीतर भीतर और भीतर
डूबा दो न
हे अनन्त
हे अनन्त सिन्धु
.........
अपने ही रस में गुमशुदा एक बिंदु को
तुम्हारा ही बिन्दु
एक रस बिन्दु
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