बाँध सकोगे

बाँध सकोगे

देह....

देह नहीं हूँ मैं

चैतन्य झरण हूँ मैं
चैतन्यता का एक बिन्दु
जो छूटा है उसी सिन्धु से

केवल एक धरा तक सिमटा अस्तित्व नही मेरा
देह समझो
काटो तोड़ो मरोड़ो
जो अपनी भोग सम्पति जानते
वहीं तक पहुँच उनकी

एक बिन्दु को क्या कर पाओगे
जो जी रहा भीतर ही भीतर कहीं
किसी मधुर विलास की रस कणिका होकर

उनके ही पुष्प की पँखुड़ी
उनकी ही लता का पुष्प
उनकी ही जावक की लाली
उनके मधु उपवन की सुगन्ध
मधुर कुँज वन की मृगी
मधुवत झरती अनुराग कणिका
कोई रस श्रृंगार उनका

नहीं मेरा जीवन बाहर नहीं
जीवन तो प्राण सँग 
भीतर ही कहीं भीतर
ललित गौर कणिका
प्राण रमण की देहरी पर बिछी .....

चैतन्यता की आकुल व्याकुल तृषित झरण

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