ललित तृषा

थी तो मैं एक पाषाण ही
हाँ पाषाण

कैसा पाषाण
जो वर्षों लुढ़कता रहा
इधर से उधर
यहां से ठोकर वहाँ से ठोकर

फिर दृष्टि पड़ी मुझपर
हाँ इसी पाषाण पर
एक मूर्तिकार की
जिसकी सौन्दर्यमयी दृष्टि
निहार पाई 
कोई ललिताई भी
आश्चर्य
इस पाषाण में भी
उठा लिया अपने श्रीकर से
कोई मूर्ति गढ़ने हेत
अब अपने राग से अनुराग से
सहेज सहेज
कभी प्रहार तो कभी दुलार से
नित्य मुझे वह कर 
सहलाते दुलारते गढ़ते हैं
कोई ललिताई
जो उनकी दृष्टि में है

तो अब
मैं पाषाण न रहूँगी
हो जाऊँगी न उनका सुख
कभी न कभी
कर रहे न मुझ पर 
नित्य नव अनुराग लेपन
नित्य रस फुहार
भीगती भीगती सी
अब मैं.....
उनकी कोई ललित तृषा होने को
..........

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