प्रेम

प्रेम

कितना विचित्र शब्द है न प्रेम 
नहीं बांध सकते शब्दों में इसे
सागर को क्या बांध सकते
सागर की उस मौज को कहने को उठती हैं न लहरें भी
ऐसे ही शब्द उठते हैं रसिकों के हिय से
उनकी वाणी झरण.....
एक एक शब्द रस रस रस
  प्रेम कितना स्वतंत्र है
किन्ही हदों में नहीं बांधता
पर प्रेम की कोमल डोरी से बांध लेता है

बड़ी बड़ी रीतियों रिवाजों रस्मों से परे इस प्रेम की सत्ता
कभी पक्षी बन उड़ने को तैयार
कभी जड़ भाँति सुप्तावस्था

कभी नृत्य में भरती प्रेम की मौज
कभी सिसकता रात रात भर

बड़ा विचित्र प्रेम है जी
कोई कायदा ही शेष न रहा जैसे
मुक्त कर दिया सबसे
कोई ज्ञान विज्ञान नहीं
प्रेमी का विज्ञान 
स्मृत रहो बस तुम बस तुम
भीतर ही भीतर सब
कोई उत्सव में भरी झूम होकर झूमता प्रेम
कभी कभी हृदय पर भी ताप से फफोले लिए घूमता प्रेम
विचित्र है प्रेम
अपरिभाषित है प्रेम
मूक संवादों में भी बोलता यह प्रेम
समझ से भी परे जैसे

कैसे समझाऊँ कैसे समझूँ
बस सागर की लहरों में जैसे कोई सँग सँग बह जाए
ऐसी स्थिति
 क्या करूँ
जो तुम चाहो
कहाँ जाऊँ
जहाँ तुम चाहो
क्या बोलूँ
जो तुम सुन्ना चाहो
कहाँ क्या कैसे
इसका उत्तर तुम बस तुम

तुमसे अधिक और क्या चाहूँ
तुम्हीं स्मृत रहो बस......

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