परिधियाँ

परिधियाँ

एक शून्य की परिधि पर खड़ी
निहार रही
कुछ कौतुक
जो हुए जीवन सँग.....

कुछ रँग जो बिखरे थे...
कुछ फूल जो महके कभी....
कुछ तितलियाँ उड़ती हुई....
कुछ बारिशें छूती हुई.....

नज़र लौटी पुनः अपने पर
शून्यता की एक परिधि 
जिसके भीतर हूँ मैं
और परिधि
एक रेखा 
जिसे पार करना
मेरा साहस
मेरा बल 
नहीं
मुझमें कोई बल नहीं

दिखती है बस एक परिधि

और एक आशा

कभी उस परिधि को पार कर जाने की
तुम्हारी होकर 
तुम्हारे सँग....

इसी आशा में 
निहारती 
अश्रुपूर्ण नेत्रों से

यह परिधियाँ......
मेरी ओर की....

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून