तुम्हारा प्रेम
प्रेम
तुम्हारा प्रेम
विष है या अमृत
अमृत नहीं
विष ही चखा दो
अमृत पान की योग्यता कहाँ इस मलिन चित्त की
विष
हाँ विष ही दो
जीवन या मरण
बस मरण ही दो
विष तो एक बार ही मारेगा न
तुम्हारे प्रेम का विष
नित्य मारेगा
क्षण क्षण मारेगा
हाँ यही विष दो
यह लोभी चित्त जो जन्मों जन्मों
ढूँढ़ रहा न कोई मधुरता
कोई विश्राम
पर नही ढूँढ पाया
यही विष इसकी दवा होगी
दो न अपना विरह
दो न प्राणों का वह क्रंदन
दो न अपने नाम का लोभ
दो न
कहाँ सामर्थ्य है इस चित्त की
जो तुम तक आ सके
तुम्हीं सामर्थ्यवान
बलात कृष्ण करने वाले
हे कृष्ण
हे कृष्ण
करो न सार्थक
अपना नाम
हे कृष्ण
हरे कृष्ण.....
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