कलम मेरी
*कलम मेरी*
आज कुछ बहकर कुछ रोयेगी कलम मेरी
मेरे अश्कों को लफ़्ज़ों में पिरोयेगी कलम मेरी
कब से सो रही थी किन्ही कन्दराओं में
आज बिखरे हुए अरमानों को सँजोयेगी कलम मेरी
बहुत भर भर रखा था कुछ कुछ बहता रहा
उठे हुए तूफान को अब बहायेगी कलम मेरी
रोज नई चोट खाने की आदत हो गई मेरी
कच्चे से ज़ख्मों को मरहम लगाएगी कलम मेरी
हाँ कभी रो रोकर बुझाया था इस चिराग को
अब इसकी तपिश को ही सह जाएगी कलम मेरी
कुछ अश्क ऐसे भी होते हैं जो आँखों से बहते नहीं
ऐसे ही अश्कों को लफ़्ज़ों में भिगोएगी कलम मेरी
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