भजन को लोभी ३५

जो मैं होतो भजन को लोभी तेरो प्रेम मैं पातो
लोभ राखतो हरिनाम को तेरो ही गुण गातो
हरिनाम रस चाख चाख उर आनन्द न समातो
हाय मैं रह्यो विष्ठा को लोभी हरिनाम न भातो
आपहुँ कृपा कीजौ अधमन पर मेरो जड़ता न जातो
कबहुँ लोभ जगे भजन को लौटत फिरूँ रसमातो

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