श्रीधाम आश्रय कैसा हो

श्रीधाम आश्रय कैसा हो

श्रीधाम वृन्दावन !!! यह नाम ही किसी रसिक हृदय को पुलकित कर देता है।भक्तमाल उन रसिक संतों की वाणी कहता अघाता नहीं है जो श्री धाम का नाम सुनते ही रोमांचित हो उठते, रज में लौटने लगते, जिनके नेत्रों में उनके युगल प्रकट रहते वह देह से कहीं भी हों सदैव धाम आश्रित रहते हैं। ऐसा आश्रय धारण किये हुए हैं धाम का की उनका मन एक क्षण को भी धाम का त्याग नहीं कर पाता। श्री रूप पाद को श्रीमन चैतन्य महाप्रभु ने नित्य वृन्दावन वासी की संज्ञा दी। जिनका हृदय एक क्षण को भी अपने युगल की स्मृति नहीं छोड़ सकता , जिनकी जिव्हा प्रति क्षण युगल नाम का उच्चारण कर रही है वही सत्य अर्थ में श्री धाम आश्रित है।
  
    श्री वृन्दावन प्रेम का ऐसा अद्भुत साम्राज्य है जहाँ युगल माधुर्य कण कण में प्रकट है। यहां के खग मृग लता पता सब दिव्य रस से उन्मादी हो रहे हैं, प्रति क्षण उल्लसित हो रहे हैं, क्षण क्षण युगल की छवि निहार रहे हैं युगल को सुख दे रहे हैं , जिन्हें युगल का स्पर्श प्राप्त है। यहां की रज  अहा ! रज रानी का क्या वर्णन करूं जिसे युगल चरण का प्रति क्षण स्पर्श प्राप्त हो रहा है। ऐसी रज को मस्तक पर धारण करने को देव भी आतुर रहते हैं।

जय जय वृन्दावन धाम परम् सुख खान ।
कीजौ कृपा मो पतित जन पड्यो शरण तेरी आन ।।

जय जय श्री वृन्दावन तुम्हीं सों मेरो ठौर ।
बलहीन आश्रयहीन हूँ मैं पतितन को सिरमौर ।।

जय जय श्री वृन्दावन जहाँ युगल करें नित्य रास ।
मोहे चरण रज दीजिहो तुम्हीं सों कीजौ आस ।।

जय जय श्री वृन्दावन जय प्रेम रस महान ।
मो सो कूकर जन्मों सों करे विषय विष्ठा पान ।।

जय जय श्री वृन्दावन नित शरण तेरो गहूँ ।
जय जय श्री वृन्दावन कैसो तेरो महिमा कहूँ ।।

जय जय वृन्दा अटवी नैक मोपे दृष्टि डारौ।
जय जय ब्रजरानी कीजौ मन प्रेम को उजियारौ ।।

जय जय श्री वृन्दा विपिन कीजो प्रेम रस संचार।
जय प्रेम अद्भुत धाम अद्भुत महिमा को क्या पार ।।

    परन्तु हमारी स्तिथि क्या है ? अति दुर्भाग्य पूर्ण ही। क्यों ???  मानव देह रूपी सर्वश्रेष्ठ योनि प्राप्त करके भी हम श्री धाम के आश्रित न हुए। न तो हमें उस दिव्य प्रेम की कोई अनुभूति होती है वहाँ और न ही हम वहां की लत पता भूमि पशु पक्षी के दिव्य रूप, दिव्य उन्माद में डूब सके। उस रज को भी मस्तक पर धारण करने की योग्यता नहीं है हमारी। वृन्दावन अर्थात  श्री वृंदा श्री तुलसी जी का वन। परन्तु मानव ने अपने भौतिक विकास की उपापोह में वृन्दावन के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट कर दिया है। वह वृक्ष लताएं लुप्त हो रही हैं जिनमे कुंज निकुंजों का भाव भावित होता है। हमें तो वहां बड़े बड़े एयरकंडिशंड होटल या फ्लैट ही चाहिए। जहां की रज के एक एक अणु में भक्ति प्रदान करने की सामर्थ्य है वहाँ हम उसके आश्रित न हो गन्दगी देखते और फैलाते हैं। सत्य है यह !! एक कड़वा सत्य । और बड़ी बात तो यह है हमें कोई पीड़ा ही नहीं इससे। प्रेम राज्य को हम भौतिक उन्नति का क्षेत्र बना रहे हैं और आध्यात्मिकता विस्मृत होती जा रही है।

    अबकी बार वृन्दावन जाएं तो इस संकल्प के साथ कि इस प्रेम भूमि में जिस वायु से हम स्वास ले रहे हैं उसे भी युगल का स्पर्श प्राप्त है जिस रज में हम चरण रख खड़े हैं उस रज का देवता भी वंदन करते हैं। धाम वास तो हमें भौतिक रूप से प्राप्त नहीं और न ही हम योग्य हैं अपनी अशुद्ध वृतियों के होते हुए , तो केवल नमन नमन नमन !!! श्री धाम हम सब पर ऐसी कृपा करें कि हम धाम का आदर करने के योग्य हों। हृदय से धाम आश्रित हों। हृदय इस योग्य बना सकें कि धाम का आश्रय ले सकें ,  युगल को सुख दे सकें। श्री धाम हम सबको अपनी शरण में रखें ।
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय श्री नवलकिशोर
जय जय श्री वृन्दावन
जहाँ रस बरसत चहुँ और

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय अद्भुत प्रेमबेलि
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय युगलवर नितकेलि

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय अष्ट सखीगण
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय राधिकारमण

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय रज महारानी
जय जय श्री वृन्दावन
जय युगल की रजधानी

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय रसिकन के प्राण
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय नित्य प्रेमगान

जय जय श्री वृन्दावन
जय महिमा कोटि अनन्त
जय जय श्री वृन्दावन
जय भक्त रसिकन सन्त

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय प्रेमरस मूल
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय कलिन्दी कूल

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय लता वल्लरी
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय प्रेमरस सों भरी

जय जय श्री वृन्दावन
जय जय रंग रँगीले दम्पति
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय ब्रज प्रेम सम्पति

जय जय श्री वृन्दावन
जाकि महिमा कही जा जाये
ब्रह्मा विष्णु सुरेश महेश
जाकी कोटि महिमा गाये

जय जय श्री वृन्दावन
दीजौ प्रेम मोहे दान
जय जय श्री वृन्दावन
जय जय प्रेम वाणी गान

जय जय श्री वृन्दावन

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