आज मन्दिर जाऊँ

मैं आज फिर मन्दिर आऊँ , पर तुमसे मिलने नहीं। सच तो यह है मन्दिर आना कोई तुमसी मिलना थोड़ा था कभी। वो तो एक लिस्ट थी हाथ में कि चलो तुमसे यह भी मांग लूँ, वह भी मांग लूँ। जो तुम दिए पहले से उसमें मुझे संतुष्टि कहाँ थी। मैं माँगती जाती थी और तुम देते जाते थे। हाँ , यही तो हुआ। कभी मेरी मांग में कोई विराम ही नहीं था और तुम्हारे देने में भी कहाँ हुआ। फिर भी कभी मेरे मन की न हुई तो झगड़ा करने , तुमसे लड़ने और ताहने उलाहने देने तो मुझे आना ही था न तुम्हारे सामने।

    तुम्हें देखते देखते ही देखने लगी। कभी लगता तुम देख रहे हो। छू लूँ तुमको। आहा ! आज तो तुम खूब सजे हो। बहुत सुंदर बन बैठे हो। बस तुमको देखना ही होता था। तुमसे खूब बातें करना।

     पर नहीं। अब तुम्हें देखने नहीं। तुमसे बात करने भी नहीं। अब स्वयम से डर लगने लगा है । अपनी मलिनता से , कि तुमको दृष्टि से भी छू ली तो तुम्हारी कोमलता ...... । न अब देखूंगी भी नहीं। न ही कोई बात निकलेगी मेरे मुख से। सच मे देखने योग्य तो पहले भी न थी पर अपनी ढिठाई करती रही।

   आज तो मुझे तुम्हारी चौखट से ही लौटने में सुकून है। आना तो मुझे जरूर है पर मेरी योग्यता तो भीतर आने की भी नहीं। मुझे तो तुम्हारी चौखट से तुम्हारे प्यारे भक्तों की चरण रज ही लेनी है। देखा है मैंने सबकी आंखों में तुम्हारे लिए प्रेम । तुमसे लाड लड़ाते हुए। तुम्हारे लिए रोते हुए , व्याकुल होते हुए। ऊँचे स्वर से तुम्हें पुकारते हुए। तुम्हारे लिए निकले अश्रु तुमसे ही छिपाते हुए। सच मे ऐसे भक्त धन्य हैं जो तुम्हारा नाम सुना सुना सबको धन्य करते हैं । तो आज मन्दिर आने का हेतु तुम्हारे इन्हीं प्यारों की चरण रज अपने मस्तक पर चढ़ाना है और हृदय से उनके चरणों मे नमन करना है। तो आज मुझे फिर मन्दिर आना है।

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