प्रीति की निहारन
*प्रीति की निहारन*
प्रीति की निहारन कैसी सखी री, प्रीति कौ निहारन कौ कौन सौं नेत्र होय री? साँची कहूँ , जेई प्रीति तो प्रीति के नेत्रों से ही निहारी जावै न।
*प्रीति के नेत्र*
प्रीति से भरे
प्रीति से पुकारते
प्रीति को निहारते
प्रीति ही भरते
प्रीति में उमगते
प्रीति से सुरभित
प्रीति से उन्मादित
प्रीति से तरंगित
प्रीति से झँकृत
प्रीति का मान
प्रीति का मिलन
प्रीति का स्वाद
प्रीति की तृषा
प्रीति की अतृप्ति
साँची कही री, जेई प्रीति कौ प्रीति के नेत्रों से ही निहार सके री, प्रीति ही हिय माँहिं भर भर राखो री, जेई प्रीति कौ भृमर होय , प्रीति कौ चाखन कौ ही प्रीति पुष्पन सौं फिरै री। हिय माँहिं प्रीति की सौरभ कौ भरि राख री, प्रीति कौ ही राग , जेई की प्रीति लहरियाँ ही हिय माँहिं झँकृत करै री। प्रीति सौं प्रीति ही मिले री।प्रीति कौ स्वाद प्रीति सौं ही पाय जावै री।
प्रीति कौ स्वाद , तो पूछे री , प्रीति कौ स्वाद क्या होय, साँची कहूँ री, प्रीति कौ स्वाद भी प्रीति होय, जाको जेई स्वाद लगै सोई जान सकै री। क्षण मात्र कौ रिक्त स्थान नाय होय जेई प्रीति में, जेई तो दिन दिन बाढ़ै री....
*दिन दिन बाढ़ै प्रीति लता, ऐसो अद्भुत खेलि*
*प्रीति हिय माँहिं झूम खेल, करै युगल दोऊ केलि*
प्रीति अपने प्रियतम माँहिं बहे री, जाको खेल ऐसो अद्भुत होय री, न निहार पावै री, *प्रीति की निहारन बड़ी अलबेली* ऐसी अलबेली होय की क्षण क्षण नवीन रँग बरसाय देय री,अबहुँ ओर अबहुँ ओर......, तृषित कर राखै री, *पीवत पीवत न अघावै*
*निरखत निरखत न अघावै*
जितो पीवत रहै, जितो निहारत रहै री, क्षण क्षण नवीन नवीन नवीन......पिछले क्षण कुछ और अब कछु ओर होय, क्षण क्षण नव नव रस फूटै री, नव नव रस महके री, नव नव सुगन्ध होवै री । फिर क्या बताऊँ री, जेई प्रीति की निहारन कैसी होय री, प्रीति के नेत्र राख सखी री, प्रीति सौं ही निहार री, प्रीति कौ निहारन होय प्रीति के नेत्रों से ही बाँवरी .........
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