मेरे तृषित प्रियतम
तुम्हारी ही रस तरंगों में झूमती
गिरती पड़ती
कभी तुमहीं में समा जाती
तो किसी क्षण विरह की अग्नि
दग्ध करने लगती मुझे
इस प्रेम वारिधि के तट पर बैठी
एक छोटी सी बून्द
तुममें ही समा जाने को आतुर
कभी घुलती उस समुद्र में
कभी छिटक कर आ बैठती किनारे
फिर तुम्हें निहारती
तुम्हें ही पुकारती
फिर दौड़ पड़ती
तुम में ही समा जाने को
यह लोभ किसका
यह प्रीति किसकी
मेरी तो नहीं न
सिन्धु के सामने बिन्दु की क्या स्थिति
यह लोभ तुम्हारा
यह प्रीति तुम्हारी
यह तृषा तुम्हारी
और तुम
मेरे तृषित प्रियतम.....
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