काहे दीन्ही बाँवरी स्वासा
हरिहौं काहे दीन्हीं बाँवरी स्वासा
एहि स्वासा देयो भक्तन कु जो बोले प्रेम कौ भासा
मूढ़ा पतित बाँवरी हरिहौं रहै जन्मन कौ निर्धन
झूठो धन नित संचय कीन्हीं मूढ़े भूल्यो साँचो धन
हा हा नाथा रोग छुडावो सगरौ भव रोग लग्यो भारी
बिरथा कीन्हीं स्वासा स्वासा बाँवरी जन्म बिगारी
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