जगति लोभ
हरिहौं जगति लोभ न जावै
कौन भाँति हिय चरणन अटकै नित स्वाद भोग कौ पावै
विषय भोग माँहिं ममता गाढ़ी दिन दिन बढ़त रहै सवाया
चार चौगुना लालसा बाढ़ै बाँवरी कबहुँ नाम कौ रस न पाया
हा हा नाथा देयो नाम भजन की भिक्षा बाँवरी होय कँगाला
कबहुँ मुख हरिनाम सुहावै बाँवरी नयनन जोड़े अश्रुकण माला
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