रसिक सँग

*रसिक कृपा*

   श्रीप्रभु कृपा से जीवन में श्रीरसिक का आना होता है तो उनका क्षण मात्र का सँग ही कल्याण का सिन्धु होता है, जिनमें उनकी करुणा हिलोरे लेती हुई जीव को कृपानवित कर देती है। श्रीरसिक सँग, श्रीवाणी स्पर्श वास्तव में एक चिंगारी की भाँति प्रवेश हो , जन्म जन्म के जड़ता के आवरण को छिन्न भिन्न कर भीतर एक अग्नि प्रज्वलन्त कर देती है।यह अग्नि भीतर के विरह को पुष्ट करती है। श्रीप्रभु से क्षण क्षण का विरह व्याकुलता देने लगता है। तब फूटने लगता है चेतना का रुदन, एक क्षण से स्पर्श से जो अनुभूति हुई वह इतनी व्याकुलता देने लगती है  कि प्रभु सँग होकर भी चेतना विरहित अनुभव करती है।

   यह विरह धीरे धीरे उस अग्नि की भाँति बढ़ता है, जिसका ताप शीतल भी करता है। ऐसा रुदन जो अन्तःकरण को द्रवित करता है, जिससे छूटने की भी चाह नहीं। जीवन मे श्रीप्रभु का स्पर्श (श्रीरसिक स्पर्श) भौतिक आवरणों से धीरे धीरे छुड़ाकर भीतर की तृप्त चेतना को अतृप्ति रूपी अमृत प्रदान करती है। चेतना का यह रुदन ही प्रेम का आरोपन है, यही रुदन प्रेम को पुष्ट करता तथा पल्ल्वित करता है।

    श्रीरसिकों का सँग, उनका स्पर्श मधु की भाँति गाढ़ होता है जिसका एक स्पर्श ही शीघ्रता से उस गाढ़ता से छूटने नहीं देता।स्पर्शित चेतना की स्थिति अपनी जड़ता से मुक्त होने को दौड़ पड़ती है, व्याकुलता उठती है कि छूट चुकी है कहीं से , पुनः वहीं तक लौटने की दौड़ आरम्भ हो चुकी, फिर चेतना को विश्राम कहाँ है।

   हे कृपानाथ ! मुझ पतित को ऐसे रसिक सँग से कभी वंचित न करना। मैं तो अपनी जड़ता से पुनः पुनः भूल जाती हूँ न तुम्हें। इनकी कोमलता, इनकी स्निग्धता से भीतर उसी मधुता का स्पर्श होता है। श्रीरसिक सँग आपकी वास्तविक कृपा है मुझ अधम पर जो मुझ अधम कीट को पुनः संसार की कीच से उठा कर अपनी वाणी से शीतल कर , पुनः पुनः आपकी उस मधुता का पान करवाते हैं। हे दीनानाथ ! श्रीरसिक सँग रूपी कृपा में आप ही मुझ अधम का हाथ पकड़ इस दावाग्नि से बाहर खींच रहे हो।

हरिहौं देयो रसिकन कौ सँग
जाकी कृपा प्रेम रस बरसै होवै जड़ता भँग
सँग रसिकन को सीतल राखै हिय मधुता गाढ़ै
भव ताप हिय सौं नसावै नित प्रेम तृषा उपजावै
हरिहौं अधमन कौ बल तुम्हीं देयो रसिकन कौ सँग
प्रेम तृषा नित गहरावै कबहुँ बाँवरी रँगे रस रँग

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