अहंकार भरयौ
हरिहौं अहंकार भरयौ भारी
भर भर नित भीतर बाँवरी सगरौ जन्म बिगारी
सन्त चरणन निष्ठा न उपजै ललसावै भोग प्रतिष्ठा
कीट रह्यौ भोगन कौ भारी नित पावत रहवै विष्ठा
बाँवरी पतित जन्म जन्म कौ कबहुँ छूटे भव फन्द
कबहुँ नाम स्वाद कौ पावै कबहुँ मिटे सकल दुख द्वन्द
Comments
Post a Comment