कहाँ छिपूं

*कहाँ छिपूं*

    हे नाथ ! हे करुणामयी !
जन्म जन्म से अन्धकार में पड़ा, माया के आवर्त में उलझा हुआ, जड़ता से बाधित , त्रिताप से तप्त, वासनाओं में लिप्त , भटका हुआ जीव हूँ नाथ। न मैंने अपना स्वभाव कभी छोड़ा न तुमने कभी अपना। सच है, तुम्हारी दृष्टि थी मुझ पर , पर मैंने ही तो नेत्र विमुखता में गढ़ा रखे थे। तुमही तो पुकार रहे थे मुझे पर बहरापन मेरा ही था। तुम थे ही कहाँ मेरे जीवन में, कोई स्थान छोड़ा ही कहाँ था तुम्हारे लिए।

   तुम भी तो अपने स्वभाव पर अडिग हो न। पतितपावन नाम तुम्हारा ही , तो क्या पतितों पर दृष्टि न करते।अपनी कृपा किस भाँति किये इस जीवन में।फिर क्या घटा इस जीवन में........ तुम्हारी पुकार सुनने वाले, तुम्हारी कृपादृष्टि में कृपा मनाने वाले आते गए मेरे जीवन मे। बहरे को सुना रहे कि सुनो ! अब सुनो ! वह पुकार रहे तुम्हें। नेत्रों से आवरण हटाओ , देखो, वह देख रहे तुम्हारी ओर।

   अब जैसे बहरा सुनने के प्रयत्न में हो ,नेत्रहीन पुनः पुनः नेत्र मले, वही दशा हो गयी नाथ।क्योंकि भीतर एक विश्वास हो गया कि तुम हो, तुमही हो।अब छटपटा रहे नाथ। लजा रहे स्वयं से। अब तुम्हारा रहस्य जान सके। एक एक नाम , हर पुकार जो हृदय से निकल रही, वह भी तुम्हारी ...  तुम ही खींच रहे, तुम ही पुकार रहे, तुम ही उठा रहे , सच तुम ही तुम।
हर तरफ तुम, तुम्हारी कृपा। हा नाथ ! अब मुझे तुम्हारी कृपा का अंत न दिख रहा न ही अपनी अधमता का। कहाँ देखूँ जब तुम ही तुम हो। क्या सुनु जब तुमसे पृथक कोई शब्द नहीं। कर्ता अकर्ता सब तुम ही तो हो। फिर भी छूट न रह मुझसे मेरा स्वभाव।

   जानते हो झूठ बोलना मेरा स्वभाव, क्या क्या झूठ बोल दिया तुमसे क्या छिपा। पर एक बात बताओ

कहाँ छिपूं

सच बताओ

कहाँ छिपूं

अपने दुर्गुण, अपनी अधमता, अपनी दुर्गन्ध लेकर कैसे आऊँ तुम्हारे सम्मुख। बस इतना बताओ
कहाँ छिपूं

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