प्रेम

प्रेम
प्रेम करना तो तुम ही जानते हो
हाँ
सच है
तुम्हें प्रेम के सिवा कुछ आता भी तो नहीं
सुहाता भी तो नहीं
दिखता भी तो नहीं
कोई दोष
कोई अभाव
कोई पात्रता
सच
कुछ भी तो न देखते हो तुम
फिर क्या देखे
इस अवगुण के ढेर में
जहाँ तुम्हारी विस्मृति
गहन विस्मृति
अभी की भी नहीं
जन्म जन्म की
पर तुम क्यों न देखते
जितना प्रेम देखती तुम्हारे भीतर
उतने ही अपने भीतर अवगुणों का विस्तार दीखता
कितना प्रेम तुम्हारा
कितने दोष मेरे
कितनी अपात्रता मेरी
कितनी विस्मृति मेरी
पर तुम छोड़ते ही नहीं
झूठ ही कह दिया मैंने
हाँ झूठ
की तुम्हारी वस्तु हूँ
कह दिया
पर समझा नहीं
माना नहीं
विस्मृति तुम्हारी
हाँ गहन विस्मृति
स्मृति केवल स्वयं की
पर तुम क्यों न देखते
इतने दोष मेरे
शायद तुम्हारा स्वभाव ही तो नहीं
पर मेरी जड़ता ही तो मेरा स्वभाव
तुम केवल प्रेम
प्रेम स्वरूप
बस प्रेम
अब वाणी भी मूक हो चली
क्योंकि शब्दों में न बन्ध सकेगी
मेरी जड़ता
तुम्हारा प्रेम
अथाह
प्रेम सिन्धु

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