कोई रिश्ता
काश गीली सी लकड़ी सा सुलगना आता मुझे
तेरे इश्क़ का कोई झोंका कभी छू जाता मुझे
सूखा सा मरुस्थल है जिसमें कोई नमी ही नहीं
मौसम ए सावन तेरे इश्क़ का कभी भिगाता मुझे
या मैं होती कोई प्यासी से नदी तेरी ओर बहती
बाँह खोले सागर ए मोहबत गले लगाता मुझे
कभी होती कोई अश्क़ भी मोहबत में भीगा सा
कोई आशिक़ तेरे इश्क़ में दिन रात बहाता मुझे
कोई टीस ही होती कभी रहती तेरे चाहने वालों में
आह भरता जब कोई तेरी याद में उठाता मुझे
कोई फूल ही होती तुझे देने को तो महबूब तेरा
इज़हार ए मोहबत को हर पल खिलाता मुझे
कोई ग़ज़ल ही होती रहती लबों पर आशिकों के
रात दिन नाम तेरा लेकर कोई गुनगुनाता मुझे
न लकड़ी, न फूल, न नदी , न अश्क़, न ही ग़ज़ल
बेवफ़ा सा दिल कोई रिश्ता न निभाना आता मुझे
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