ईश्वरीय विधान
*ईश्वरीय विधान*
शरणागति का प्रथम लक्षण है ईश्वरीय विधान की स्वकृति। जब कोई जीव शरणागत होता है तो धीरे धीरे उसके अहम की विस्मृति आरम्भ होती है। फिर यह प्रश्न ,यह क्यों हुआ, यह कैसे हुआ, इसको ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए था , यह विषय जीवन से धीरे धीरे लुप्त होने लगते हैं।
*जोई जोई प्यारो करे सोई मोहे भावै*
जब जीव शरणागति के मार्ग पर होता है तब स्वामी का सुख ही उसका जीवन होने लगता है। प्रश्नों की उतपति तब तक है जब तक स्वयं की इच्छाएं शेष हैं। जब प्रभु की इच्छा में स्वयम को समर्पित कर दिया गया तब ईश्वरीय विधान की स्वीकृति हो गई
ईश्वरीय विधान से कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है। व्यर्थता तभी तक दृष्टिगोचर होती है जब तक उस वस्तु का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा को नहीं समझा जाता। हम अभी इतने समझदार न हुए कि संसार की प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व को समझ सकें। यदि इसी बात को मूल में रख लिया जावै कि इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व ईश्वरीय विधान के अनुसार है। हमारे भौतिक जीवन के सम्बंध, प्रत्येक व्यक्ति जो भी किसी से जुड़ा है वह सब ईश्वरीय विधान से है।
स्वामी पर आश्रित होना अर्थात ईश्वरीय विधान की स्वीकृति संतुष्टि की परमोच्च अवस्था पर खड़ा कर देती है। जब तक हर वस्तु, हर कार्य , हर व्यक्ति के लिए हम कारण की खोज में हैं तब तक हम स्वयम को जी रहे होते हैं। जितना हम अपने अहंकार की पुष्टि करते हैं उतना ही हम भीतरी निर्मलता से दूर खड़े हैं। एक आश्रय से जुड़ जाना ही वास्तविक सुख है। इससे सब कलह , क्लेश , चिंताएं सब लुप्त होने लगती हैं। शरणागत का स्वयम का अहंकार भी समर्पित हो गया तब शेष क्या रहा। एक अपरिमित सुख। सब तृष्णाएं, इच्छाएं , लालसाएं अपने प्रभु की इच्छा में मिल चुकी अब । अब जीवन भारहीन हो चुका। कोई बोझ ही नहीं, क्योंकि बोझ तो वास्तविकता में कोई था ही नहीं। वहां अपने अहम की ही सिद्धि खड़ी थी। जब हर वस्तु अपनी ही दृष्टि से देखी जा रही थी। शरणागत की दृष्टि तो अपने आश्रय के चरणों के अतिरिक्त कहीं जाती ही नहीं। तुम हो न । बस फिर मेरी चिंता क्यों। जिसकी जितनी शरणागति हुई उतनी ही आत्म विस्मृति हुई , उतना ही ईश्वरीय विधान स्वीकार होता गया।
जब मैं जिंदा हूँ तो कई अरमान बाक़ी हैं
मुझमे क्यों मेरी मौत का सामान बाक़ी है
जब खुद फनाह हो चुका मैं तेरे सजदे में
तुम ही रह गए मेरे होने का बस निशान बाक़ी है
यही वास्तविक शरणागति है।
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