*कहाँ छिपूं* हे नाथ ! हे करुणामयी ! जन्म जन्म से अन्धकार में पड़ा, माया के आवर्त में उलझा हुआ, जड़ता से बाधित , त्रिताप से तप्त, वासनाओं में लिप्त , भटका हुआ जीव हूँ नाथ। न मैंने अपन...
पुकार हाँ पुकार झूठी सच्ची सी पुकार सुन लिए तुम झूठ तो नहीं माने झूठ कुछ मानते ही नहीं दोष कोई देखते ही नहीं देखते हो बस उत्सुकता सुन लिए एक बार मुझसे तुम मेरे झूठ सच मेरे हृद...
भक्ति पथ कौ मूल है श्रद्धा और विश्वास बिन श्रद्धा जेई मार्ग चलिवै की छांड देयो आस पकरि डोर श्रद्धा की विश्वास कौ कीजौ साधन बात जोय की बनी ह्वै हिय सौं तिनको करौ आराधन पकरि प...
हरिहौं हम अहंकारी न थोरे भर भर रहे अहम नित उर अंतर ऐसो जगति दौरे एकै राह दृढ़ होय न चालै बाँवरी राह नई नित होरे अबहुँ बिलपत मूढ़े करमन कु काहे रोय रोय माथो फोरे नाम की निधि न राखी ...
हरिहौं साँची न चटपटी लागै कबहुँ पावै बाँवरी स्वाद नाम कौ दूर जगति सौं भागै आपहुँ कृपा कर देयो स्वाद नाम कौ और न चाहूँ नाथा मुख राखूँ धन हरिनाम कौ और सुमिरनी पकरूँ हाथा रसना ...
श्रीहरिदास रट री रसना या में सुख अपार श्रीहरिदास नाम ही सकल भक्ति कौ होय सार हरिदास भजै हरि आप मिले रट रे मन हरिदास भये प्रसन्न लाल लाडिली राखै चरण कमल पास बाँवरी भज हरिदास ...
यूँ तो इश्क़ पर कई ग़ज़लें लिख डाली हमने हैरान हूँ मुझे अब तलक इश्क़ तो हुआ ही नहीं मुझको मुझसे चुरा ही लेते तुम पूरा पूरा अपनी औकात से कभी मैंने तो छुआ ही नहीं यूँ ही बैठे हैं खुद ...
हरिहौं पाथर हिय न द्रवै चोट परै सत्संग की निशिदिन तबहुँ जेहि भोग लहै कबहुँ चित होय शुद्ध बाँवरी कबहुँ होय शुद्ध नाम कबहुँ लोभ भजन कौ उपजै सकल कारज वाम हा हा नाथा मोल न कीन्ह...
हरिहौं हमरौ स्वभाव अधमाई तुम करुणाकर कृपा मूर्ति देत सगरौ दोष बिसराई अवगुण की खान होऊँ नाथा पर तुम अवगुण नाँहिं जानो कृपा कोर की नित राखो अधमन कौ अपनो ही जन मानो तुम्हरौ स्...
हरिहौं हमरौ स्वभाव अधमाई तुम करुणाकर कृपा मूर्ति देत सगरौ दोष बिसराई अवगुण की खान होऊँ नाथा पर तुम अवगुण नाँहिं जानो कृपा कोर की नित राखो अधमन कौ अपनो ही जन मानो तुम्हरौ स्...
हरिहौं भोग कौ भयो अवतार भोग चितवै भोग उपजै बाँवरी भोग कौ कारोबार नाम भजन की बात न कीन्हीं बाँवरी भोगन रहै पसार कौन भाँति भव होय छुटकारा न लहै नाम कौ सार पतित बाँवरी जन्म जन्...
हरिहौं जानो दसा हमारी भोग पकावै निशि बासर बाँवरी सगरौ जन्म बिगारी हिय उपजै न चटपटी भजन की भरयौ घोर अहंकार कौन भाँति जीवन होय परकास भयो गहरो अंधकार हरिहौं नाम की ज्योति देय...
प्रेम प्रेम करना तो तुम ही जानते हो हाँ सच है तुम्हें प्रेम के सिवा कुछ आता भी तो नहीं सुहाता भी तो नहीं दिखता भी तो नहीं कोई दोष कोई अभाव कोई पात्रता सच कुछ भी तो न देखते हो तुम ...
हरिहौं हम अहंकारी न थोरे भर भर रहे अहम नित उर अंतर ऐसो जगति दौरे एकै राह दृढ़ होय न चालै बाँवरी राह नई नित होरे अबहुँ बिलपत मूढ़े करमन कु काहे रोय रोय माथो फोरे नाम की निधि न राखी ...
हरिहौं अपराधन की खान भयो कोटि कोटि जन्म किये अपराध बाँवरी नादान रहयो एकै नाम ते कटे अपराधा बाँवरी पर साँचो न नाम लयो रसिक भक्तन की कृपा अहैतुकी पर मूढ़े न कान दयो हा हा नाथा अ...
हरिहौं कौन कहै पतितपावन जौ पतितन कौ पावन न कीन्हें कैसो नाम सुहावन तुम भक्तवत्सल मैं भक्त न हरिहौं तुम अधमन तारन तुम दाता दीनानाथ प्रभु हमहुँ जन्म जन्म भिखारन पाथर हिय कब...
*रसिक कृपा* श्रीप्रभु कृपा से जीवन में श्रीरसिक का आना होता है तो उनका क्षण मात्र का सँग ही कल्याण का सिन्धु होता है, जिनमें उनकी करुणा हिलोरे लेती हुई जीव को कृपानवित कर द...
हरिहौं न देह तपै न हिय षड रस भोग पदारथ लगै नीको पुनः खींचत जिय मणि माणिक अति प्यारे लागै भोग सिंगार रहै भारी भोगन माँहिं रहै उलझाई बाँवरी मानुस जन्म बिगारी हा हा नाथा पकरत र...
अपने अश्कों से सजा लेंगे महफ़िल अपनी अपने गम उठाने की तुम ज़िद न करो यही तो दौलत ए इश्क़ पाई है हमने अब और आज़माने की तुम ज़िद न करो दर्द पीने का शौक़ रखने लगे हैं अब हम अब मेरे गम भुला...
हरिहौं भोग जगति हिय भाय विषय वासना कौ जड़ गहरी हरिनाम न कबहुँ सुहाय हरिनाम न कबहुँ सुहाय बाँवरी नित नव ढोंग बनाय बाहर भीतर अन्तर कीन्हीं किस विध प्रेम रस पाय जो होतो हिय चातक...
हरिहौं हम प्रेम कौ पन्थ न जाने बुद्धि खोटी जन्म जन्म सौं किये सदा मनमाने भोग पदार्थ लागै नीकै बाँवरी नित नित संचय कीन्हें हरि चरणन सौं प्रेम न उपजै हिय भोग बढ़ै रसभीने विषय भ...
हरिहौं जगति लोभ न जावै कौन भाँति हिय चरणन अटकै नित स्वाद भोग कौ पावै विषय भोग माँहिं ममता गाढ़ी दिन दिन बढ़त रहै सवाया चार चौगुना लालसा बाढ़ै बाँवरी कबहुँ नाम कौ रस न पाया हा हा ...
यूँ तो थोड़ा थोड़ा सा रोज़ सुलगते हैं हम कभी जल ही जाएँ तुम ऐसी हवा देना बड़ी मुद्दतों से भुला बैठे थे हम तुमको तुम्हें भुलाने की चलो कोई सजा देना यूँ ही फ़िज़ूल कर दी साँसें क्यों ह...