कैसो कहूँ
कैसो कहूँ हरिनाम अति मीठो जगत को रस नित पाऊँ जी
चिन्तन हरि को कबहुँ न होवै क्षण क्षण व्यर्थ गमाउँ जी
हरि प्रेम नाय हिय बसायो विषय रस माँहि हिय रमाउँ जी
मान प्रतिष्ठा अति प्यारी लागे मोहे प्रियालाल न ध्याऊँ जी
आपहुँ हाथ पकर लीजौ साहिब भव सिंधु डूबत जाऊँ जी
मेरो तुम्हीं होय बल ठाकुर मेरे कोऊ और देव नाँहि ध्याऊँ जी
चरणन की रति मोहे ऐसो दीजो नित हरिनाम ही गाऊँ जी
कोऊ वासना हिय न उपजै युगल चरण की सेवा पाऊँ जी
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