विलास
*विलास*
विलास का अर्थ है खेल , क्रीड़ा या क्रिया। सर्वत्र ही उस परम तत्व का विलास है। इसको दो तरह समझा जा सकता है बाहरी विलास और भीतरी विलास। ज्ञानी के लिए सर्वत्र मैं ही हूँ तो मेरा ही विलास है। सब रूप में मेरा ही तत्व है। प्रेमी के लिए उसका होना ही पीड़ा है। मैं नहीं तुम ही तुम हो, सर्वत्र उस प्रियतम का ही विलास है। साधक की उस बाहरी विलास की विस्मृति करते हुए उस प्रेम तत्व के भीतरी विलास तक पहुंचने की यात्रा है।
बाहरी विलास में देखें तो सर्वत्र जड़ चेतन उस प्रभु का ही विलास है। वह ही अपने विभिन्न रूप बनाकर विलसित है अर्थात क्रीड़ायमान है। अपने से अपने मे ही खेल रहा है। वही पुरुष तत्व है जो अपनी ही लीला शक्ति प्रकृति से संलग्न होकर विभिन्न रूप में विलास कर रहा है।
भीतरी विलास अर्थात उसी परम् तत्व का खेल, यहाँ यह पुरुष प्रकृति न होकर श्रीयुगल विलास, श्रीहित विलास है। यहाँ यह प्रेम तत्व प्रिया प्रियतम उनकी सहचरियों तथा श्रीवृन्दावन का विलास है। यही प्रेम तत्व मूर्तिमान स्वरूप होकर स्वयम से स्वयम में खेल रहा है। सहचरियां उसी प्रेम तत्व को लाड लड़ाकर उनके मधुर विलास में विलसित हैं। भीतरी विलास उस प्रेम तत्व का ही सम्पूर्ण खेल है।
साधक स्थिति अर्थात श्रीभगवत कृपा , श्रीगुरुदेव कृपा, श्रीमन्त्र कृपा प्राप्त कर यह यात्रा बाहरी विलास से भीतरी विलास की ओर अग्रसर है।बाहरी विलास अर्थात जगत में हो रही प्रत्येक क्रिया उसी तत्व का विलास है , शरणागति दृढ़ होते होते बाहरी विलास से भीतरी विलास की परतें खुलने लगती हैं। श्रीभगवत चरणों मे, श्रीगुरुचरणों में विश्वास, शरणागति दृढ़ होते होते ही बाहरी दुख द्वंद बाहरी विलास ही प्रतीत होने लगते हैं तथा साधक श्रीगुरु चरण आश्रय कर, श्रीनाम प्रभु के आश्रित होकर बाहरी विलास में भी अपने इष्ट की क्रीड़ा निहारता हया भीतरी विलास का लोलुप्त होने लगता है। भगवत कृपा ही बाहरी विलास अंतर्ध्यान कर भीतरी विलास में प्रवेश करवाती है।
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