भाव
अपनी प्राणा श्रीप्रियाजु के करों में टूटे हुए कँगन देख दासी अतिशय व्याकुल हो उठी, भीतर जाकर कँगन चूड़ियाँ लेकर श्रीप्रियाजु की कलाई में पहना दीं। अपने ही भाव मे मग्न श्रीप्रियाजु को जैसे कोई सुधि ही नहीं कि कब कँगन टूटा, तथा कब नई कँगन चूड़ियाँ उनकी कलाई में श्रृंगारित हो रही हैं। भाव गामिनी बाहर से उठ भीतर श्रीगौरसुन्दर के शयन कक्ष में चल देती हैं।
भीतर कक्ष में दासी का प्रवेश तो नहीं, पर आज वह अपनी स्वामिनी की सेवा में भाव रूप से उनके कँगन चूड़ी बन सेवा हो गई है, कक्ष के बाहर ही उसके प्राण इस श्रृंगार से तन्मय हो गए। भीतर श्रीप्रियाजु मलिन विरहणी वेश में नहीं , अपितु श्रृंगारित आसन पर श्रीनदिया युगल अपने सम्पूर्ण श्रृंगार विलास में सुशोभित हो रहे हैं। आह !! यह दासी अपनी स्वामिनी की सेवा में आज भीतर प्रवेश कर गई जैसे। क्या हृदय इस प्रेम आधिक्य को सहन कर पाएगा, यह रस मादकता जो श्री नदिया युगल की सुख सेवा हो झरण हो रही , इन चँचल कँगन चूड़ियों को क्या स्थिर रहने देगी। रस भार से उछलती यह कँगन चूड़ियाँ रसराज को पुनः पुनः रस विवश कर रही हों जैसे, जाने क्या रस पगी उछलन से रसराज गौरसुन्दर के करकमल रस विवश हो श्रीप्रियाजु की कलाई में खनकती इन कँगन चूड़ियों को स्पर्श करने लगे। आह !! इन चँचल चूड़ियों की रस उछलन , प्रियतम का कर जैसे ही प्रियाजु के कर को स्पर्श हुआ, दोनो की रस देह स्पंदित हो उठी जैसे, जिससे यह चूड़ियाँ भी खनकने लगी पुनः पुनः।
कर से कर का वह स्पर्श.....
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