प्रेम
*प्रेम*
प्रेम
वास्तव में इस शब्द को कहने की भी योग्यता नहीं
मुख से उचारण की भी योग्यता नहीं
कहाँ समेट सकते हम इस धन को
ठहरो
ठहरो
एक बार पुनः निर्णय करो
क्यों प्रेम लुटा रहे
इस कलुषित जीव पर
यह धन कहाँ समेटा जाए
मलिनता भरी कोठरी में
जहाँ जन्म जन्म की धूल
जन्म जन्म की गन्दगी
यह मन चित्त प्राण
सब कलुषित हो चुके
भयावह दुर्गन्ध में
यह प्रेम का कोमल पुष्प
नहीं नहीं
पुनः निर्णय करो
कलुषित हृदय
बुध्दि का विस्तार
दुर्गन्ध युक्त आवरण
नहीं नहीं
तनिक भी सहजता नहीं
कोई योग्यता ही नहीं
इस धन को समेटने की
किस भाँति निहार सकें अपने हृदय को भी
झुक जाते हैं यह नेत्र
सकुचा जाती है यह बुद्धि
लड़खड़ाने लगती है यह जिव्हा
कौन भाँति
नाथ !
कौन भाँति
यह भी सम्पूर्ण परिचय नहीं मेरी दुर्वासनाओं का
तुमसे कुछ छिपा नहीं
तुम्हारा धन
तुम ही रखो........
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