वेणु माधुरी

*वेणु माधुरी*

रस वर्षिणी
रस आन्दिनी
रस प्रदायनी
रस सरसावनी
रस सुरसनी
वेणु वेणु

एक एक रव
प्रेम से भरा
रस से भरा
जितना भर रहा उतना प्यासा करता
जैसे कोई समुद्र में भरकर भी प्यासा हो
एक एक रव से झरता हुआ रस
माधुर्य तृषा
रोम रोम में रस का स्पर्श फिर भी तृषा ऐसी जैसे कोई मीन समुद्र में हो फिर भी प्यास

क्यों है यह अनन्त प्यास??

यह वेणु भर क्या लाई है? भीतर जो बरसा रही है
इस रस का स्पर्श आह
जिसका एक एक रव चेतना को स्पर्श कर रसीला करता है। रस झरता है
जैसे तृषा को तृप्त भी कर रही और और और तृषित भी
इतनी मादकता इस वेणु में
जितना माधुर्य भरती जाती है , जितनी मादकता भरती जाती, जितना प्रेम सुधा झरा रही उतनी ही अतृप्त , उतनी ही तृषित कर रही
अनन्त रस, अनन्त माधुर्य इस रस आनन्दिनी, रस सारिणी, रस प्रदायनी वेणु में
भर लाई है भीतर प्रियतम के हृदय की नित्य तृषा
एक एक रव प्रियतम के हृदय का रस स्पर्श, रस लालसा, रस उत्कंठा को प्रिया के कर्णपुटों में भर श्रीप्रिया को मुग्धा कर रहा
रस की लालसा से जैसे रस सिन्धु ही उमग पड़ा हो। जहाँ पीने की प्यास अनन्त हो रही वहीं श्रीप्रिया के हृदय का प्रेम सिन्धु भी अनन्त प्रेम सुधाओं के वर्षण को तृषातुर
आहा !! तृषा को तृप्त या तृषित को तृषातुर करने का खेल यह वेणु
इसकी रस लहरियों में अनन्त सुधाओं, अनन्त स्मृतियों की गूँथन है। अनन्त केलियों का माधुर्य सार यह वेणु ।।
फिर इस मधुरिमा की चाशनी में उमगते दोऊ रस फूल हृदय , आह !! इस वेणु की अमृतमयी रस वर्षा जैसे तप्त मरु भूमि पर अमृत रस वर्षण। पर ऐसा अद्भुत अमृत श्रीवृन्दावन के अतिरिक्त अन्य कहाँ??अमृत जिसकी एक बूंद मात्र पीकर समस्त तृषाएँ शांत हो जाती हैं, परन्तु यह वेणु अमृत कैसा दिव्य अमृत जिस्का पान तृषाओं को तृप्त न कर पा रहा वरन यह प्रेम तृषाएँ, यह रस लालसाएं अनन्त हो रही हैं।अनन्त माधुर्य भी झरने को व्याकुल , जैसे प्यास का समुद्र उफ़न रहा और उसकी तृप्ति को भी समुद्र ही उछल रहा, दोनों रस समुद्र की उछलन से पुनः रस तृषा सिन्धु तृषित तथा रस माधुर्य सिन्धु उस तृषा सिन्धु में समाने को तृषित। तृषा प्रदायिनी वेणु वेणु
सरस् माधुरी वेणु वेणु

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