प्रेम
प्रेम अकारण है
कोई कारण नहीं
कारण हुआ तो वह प्रेम नहीं
प्रेम तो एक उछाल है बस
एक तरँग सी
बह गई छू गयी
निकली कहीं से पिघलाती सी
कहीं जाने को व्याकुल
आखिर कहां??
प्रेम तक ही
प्रेम की दौड़ प्रेम तक ही
प्रेम की छुवन प्रेम तक ही
प्रेम का सौरभ प्रेम तक ही
प्रेम की पुलकन प्रेम तक ही
प्रेम का रुदन प्रेम तक ही
प्रेम का नर्तन प्रेम तक ही
प्रेम सरिता का बहाव प्रेम तक ही है
कारण खोजोगे
तो नहीं मिलेगा
कारण भौतिक होते
जड़त्व के कारण
स्वसुख के कारण
लोभ लालसा के कारण
यह तो ऐसी स्थिति ही नहीं
जिसका कोई कारण हो
पूछो तो क्यों है
नहीं पता
बस है तो है
कारण हीन स्वसुख इच्छा हीन स्थिति है प्रेम
जहाँ की पुलक प्रियतम के हृदय से है
बस उसी में से उठकर उसी को छूने को
उसी में समाने को ही व्याकुल
कोई और स्थिति हो
कोई और कारण हो
तो प्रेम सुधा कैसे बहे
कारण तो बन्धन हो गया
ठहराव हो गया न
कुछ और चाहत हो गई
कोई और आकांशा है भीतर
फिर प्रेम का बहाव नहीं
इस सिन्धु की झूलती उछलती उन्मादित तरँगे
कोई बाधा रखती ही नहीं
हर बांध को तोड़ती हुई
हर बाधा को हटाती हुई
बढ़ती जाती है
बहती जाती है
प्रेम में ही मिलने को
प्रेम से भरी हुई
फिर भी
प्रेम के लिए ही
तृषित
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