लीला6

*श्रीगौर लीला रस तरंगिणी*

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*गौरसुन्दर का शयन*

      गौरहरि एक बड़े पलँग पर शयन कर रहे हैं। स्वामिनी बिष्णुप्रिया जी उनके कक्ष में विराजमान हैं।संध्या अभी हुई नहीं है, इस समय गौरहरि कभी शयन नहीं करते ,परन्तु आज कैसे उनके नेत्र मूंद गये, कुछ ही क्षण वह जैसे गहरी निद्रा में चले गए। बिष्णुप्रिया जी उनकी मुख माधुरी का अवलोकन कर रही हैं।

     झरोखे से मंद-मंद प्रकाश कक्ष के भीतर आ रहा है।श्वेत वस्त्रों में सुशोभित गौरसुन्दर की मुख माधुरी आहा!! माखन पर जिस प्रकार सिंदूर छिड़क गया हो, कोमलता, उज्जवलता, स्निग्धता, लालित्य, मधुरिमा ,आहा!! अनिर्वचनीय माधुर्य झर रहा है जैसे। ऐसा आलोक कि सुबह का सूर्य जिस भाँति आकाश को चीरता हुआ प्रस्फुटित हो रहा है, उज्जवलता और लालित्य , कोई उपमा भी किस भाँति दी जा सकती है इस अनुपम सौंदर्य को निहारने को। स्वामिनी बिष्णुप्रिया अपलक नेत्रों से स्वामी की मुख माधुरी निहार रही है।

    झरोखे से सहसा वायु का एक झोंका भीतर कक्ष में प्रवेश करता है,जो उनकी अल्कावली सँग अठखेलियाँ कर रहा है। गौर मुखकमल पर श्यामल अल्कावली ऐसे क्रीड़ामयी हो रही है , जैसे आकाश में पूर्ण चन्द्र को कभी श्यामल घन ढक लें कभी अनावरित कर दें। पहले ही मुख माधुरी निहारते न बन रही थी, उस पर यह नये खेल।

      मूक सी खड़ी स्वामिनी पलँग के एक कोने से श्रीमुख को निहारती हुई।खड़े होने की सामर्थ्य भी जैसे नहीं हो रही, निहार निहार देह पुलकित हुई जा रही। तीव्र स्पंदन, तीव्र श्वास गति, समस्त रोमावली जैसे इस पुलकन को भीतर भर रही है।कंपकपाते हुए अधरों से जैसे एक शब्द भी मुखरित न हो सकेगा। इस रसमाधुरी में डूबी श्रीबिष्णुप्रियां जी के मुख से मात्र एक ही शब्द उच्चारित हुआ है और वह वहीं मूर्छित सी हुई ,जाने किस उन्माद अवस्था मे है। साहस कर भी शब्दों को छूने वाणी की सामर्थ्य नहीं हो रहा , कम्पकपाते अधर बस यही पुकार रहे जो भीतर ही भीतर ध्वनित हो रहा गौरसुन्दर गौर..........

श्रीगुरुगौरांगो जयते !!

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