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प्रेम हिंडोरा 9* आज मेरी स्वामिनी प्रसन्न भई,जेई कौ श्रृंगार धराती दासी अपनी प्राणा जु की बलिहारी लेय रही। स्वामिनी जु की भाव दशा आज विचित्र होय रही। कबहुँ तो ऐसो विरह जड़ता से जड़ होय की पुनः पुनः प्रियतम की रस केलि की स्मृति देय जेई दासी अपनी स्वामिनी कु श्रृंगार धरावै, परन्तु आज तो विचित्र स्थिति भई, मोरी स्वामिनी प्रसन्न भई, मोरी लाडली प्रसन्न भई। अपने हिय वासित प्रियतम कु हिय माँहिं निरख निरख मुस्काय रही। श्रृंगार अभी पूर्ण भी न भयौ , चँचला सहसा उठ खड़ी हुई, दौड़ पड़ी हिंडोरे की ओर, प्रेम हिंडोरे की स्मृति उन्मादित कर रही श्रीप्रिया जु को।बिना रुकै श्रृंगार कक्ष से उपवन में हिंडोरे की ओर दौड़ लगा रही है। दासी अपनी स्वामिनी के पीछे दौड़ रही है कहीं इस प्रेम दशा में यह बाँवरी सम्भल न सकै तो, दासी के प्राण तो अपनी स्वामिनी के पीछे ही निकल गए जैसे।हिंडोरे पर बैठ प्यारी जु , श्रृंगारित पुष्पों को अपनी कोमल करावली से स्पर्श कर रही है, जैसे नव नव सौरभता का दान दे रही हो, नव कोमलता दे रही हो, नव मधुरता दे रही हो। दासी ने प्यारी जु को धीरे धीरे झुलाना आरम्भ ...