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Showing posts from June, 2022

आज भी....

 आज भी.... आज भी रात जाएगी बस आँखों में रो रहा है दिल पर इन आँखों में कोई अश्क नहीं  बह रहे थे जो मुद्दत से मेरी आँखों से आज मेरे अश्क़ भी छोड़कर गए मुझको  न तो ज़िन्दा हूँ न अब तलक मौत आई न तुम मिले न तुमसे मिलने की उम्मीद गई माना काबिल नहीं हूँ साहिब इश्क़ के अब तलक इश्क़ तुम हो हमने यह बात चलाई ही नहीं जाने क्या उतर रहा है आज इन लफ़्ज़ों में अपनी बातें यूँ खुलेआम लिखाया न करो चलो नहीं माँगती तुमसे इन बेचैनियों का हिसाब हो दवा तुम ही तुमसे से तुमको नहीं मांगा मैंने

चाहती हूँ तुमसे

 चाहती हूँ तुमसे... थोड़ा सा दर्द कुछ अश्क दे दो मुझे आज जीने का बहाना चाहती हूँ तुमसे मरना आसान है मुश्किल है जिंदा रहना चन्द सांसों की मोहलत चाहती हूँ तुमसे दे दो रिसते हुए से थोड़े ज़ख्म तोहफ़ा सिसकियों का नज़राना चाहती हूँ तुमसे कर दो इतना खाली कि भीतर तुम ही रहो रूह के मालिक रहो इतना चाहती हूँ तुमसे हूँ कुछ बेचैन सी पर मुझको न थोड़ा चैन मिले यही इश्क़ की बेचैनियां चाहती हूँ तुमसे न देना मौत बस सुलगती सी ज़िन्दगी देना नहीं दवा बस सिर्फ दर्द ही चाहती हूँ तुमसे कतरा कतरा मेरे लहू का बस पुकारे तुम्हें मेरी खामोशी भी पुकारे इतना चाहती हूँ तुमसे

बस तुम

बस तुम और क्या लिखूँ जो तुम जानते ही न हो दिल में रहते हो पर मुझसे छिपे रहते हो जानते हो बात सब बिना ज़ुबान से कहे छिप छिप कर दिल में ही कहते रहते हो इक नज़र भर देखने को है प्यासी यह आँखें खेल मुझसे छिपने छिपाने के खेलते रहते हो चलो मैं न बिक पाई पर तुम खरीद लो मुझको हो सौदागर इश्क़ के तुम सौदे करते रहते हो पढ़ लो इक बार मेरी आँखों में भी चेहरा अपना मेरे होकर भी मुझसे क्यों अजनबी रहते हो सच है अब सम्भलती नहीं मेरी धड़कनें मुझसे बनकर अरमान मेरी रूह में मचलते रहते हो क्या छिपाया है बोलो मैंने तुमसे हाल ए दिल तुम ही लिखवाते हो और तुम ही पढ़ते रहते हो

तुम क्यों हो

तुम क्यों हो... यह जो बेचैनी सी छाई है रूह पर मेरी चलो बताओ कि इतने बेचैन तुम क्यों हो कहाँ चली गई हैं नींदें मेरी आँखों की चलो बताओ कि इतना जागते तुम क्यों हो मैं तो खामोश सी रही हूँ बड़ी मुद्दत से चलो बताओ मेरी कलम से लिखते तुम क्यों हो है तो ज़हर से भी कड़वा मिज़ाज मेरा चलो बताओ इतना मीठा बोलते तुम क्यों हो सच है नहीं काबिल थी इश्क़ के मैं कभी चलो बताओ मुझसे इतना इश्क़ करते तुम क्यों हो कहाँ जाकर मुक्कमल होगी यह तलाश मेरी चलो बताओ मेरे ही दिल में छुपते तुम क्यों हो

सुन लो

सुन लो चलो आज हिसाब लो मुझसे मेरी मोहब्बत का तेरे हिस्से में सारा इश्क़ मेरे हिस्से बेवफाई आई जानती हूँ तेरे ही अश्क बहते हैं मेरी आँखों से एक एक अश्क में कैसे इतनी तरावट आई क्यों चलती हैं मेरी साँसे बिना पुकारे तुझे सुनते हैं कि इश्क़ में इक साँस न खाली आई  सुना है इश्क़ में बाकी वजूद नहीं रहता कोई आईने में क्यों मुझे नज़र मेरी तस्वीर आई नहीं नहीं नहीं अब तलक कोई इश्क़ हुआ मुझको अब तलक नहीं इस रूह पर इश्क़ की बेचैनी छाई अब बरस जाओ इस बंजर सी जमीं पर बादल होकर सुलगते से इन जख्मों की बन जाओ तुम्हीं दवाई

कैसे

कैसे ......... मुद्दतों से थमी थमी सी थी ज़िन्दगी मेरी अब उठते यह इश्क़ के तूफान संभालूं कैसे यह भी सच है कि फलसफा ए इश्क़ समझी नहीं तुम जी कहो कायदे इश्क़ के निभा लूँ कैसे सुना है बहती हुई नदियों का रुकना ठीक नहीं नहीं हिम्मत फिर इन लहरों को उछालूं कैसे रोज ही इक इक चिराग बुझता है मेरी महफ़िल का बढ़ते हुए अंधेरो को रोशनी में सजा लूँ कैसे  दिन ब दिन टूटता ही जाता है सब्र इस दिल का नहीं बस में मेरे यह कम्बख़्त मना लूँ कैसे चन्द परदों में छिपा रखे हैं हालात ए दिल अपने तू ही बता इक झटके में इन्हें हटा लूँ कैसे मैं तो खामोश हूँ जाने भीतर कौन उछलता रहता है दर्द ए दिल फिर अपनी जुबां से मैं गा लूँ कैसे मेरा मर्ज़ तू ही बस तू ही दवा है मेरी इतना मीठा है दर्द ए इश्क़ छुड़ा लूँ कैसे

लहरें और सागर

लहरें और सागर कुछ क्षण पूर्व .... शान्त सा सागर फिर... उस सागर को अनन्त क्रीड़ाएँ विलसाती लहरें एक ही ज्वार से उठी लहरें जैसे खेलने लगी उस अनन्त सागर में आती लहरें जाती लहरें खेलती लहरें न न जल की लहर न उस प्रेम सिन्धु की हिलोरित लहरें एक एक लहर से उठता वह स्पंदन कैसे समा सके हृदय में  उस अनन्त सागर के यह खेल कुछ तो उछलेगा ही न कुछ तो मचलेगा ही न हे सिन्धु हे रस सिन्धु डुबो दो न इस सागर के तल तक जहाँ पुनः बाहर ना आ सकूँ डूबती रहूँ और गहरे  और गहरे भीतर भीतर और भीतर डूबा दो न  हे अनन्त हे अनन्त सिन्धु ......... अपने ही रस में गुमशुदा एक बिंदु को तुम्हारा ही बिन्दु एक रस बिन्दु

तेरा इश्क़

जब जब दिल यह पिघलता सा है इन आँखों से कुछ बहता है  इक टीस सी उठती है तेरे बिना जीने में दिल यही कहता है नहीं रोक पाते हम कभी इस दिल में उठते हुए तूफानों को  कुछ आँखों से बहता है और कुछ दिल लफ़्ज़ों में कहता है सच है सुकून न मिला है इस रूह को मुद्दत से अब तलक मेरे ज़िक्र में मेरे फिक्र में बस नाम तेरा ही रहता है यह भी सच है कि नहीं इश्क़ मुझे करना आया है कभी पर तुमको इश्क़ है यह सुकून रूह को रहता है कब तलक भीगी सी सिसकती सी  रहेंगी यह साँसें हूँ मैं खामोश बस तेरा इश्क़ ही लिखता रहता है

हे श्रृंगारिणी

हे श्रृंगारिणी हे श्रृंगारिणी  हो जाऊँ मैं कोई मोती आपकी माला का कोई नूपुर आपके चरणों में पड़ी नूपुर का हाथों पर जमी कोई जावक कणिका या अधरन पर बिखरी लालिमा कर्णफूल में झूमता मोती या मस्तक पर सजती बेंदी कटि किंकणी की कोई रुनझुन और कपोलन पर बिखरी लाली अलक कोई कपोलन पर नृत्यमयी असन वसन का कोई धागा सहज अनुराग प्रिया सँग लागा हे श्रृंगारिणी हे श्रृंगारिणी करो कोई निज चरण किंकरी करो कोई निज श्रृंगार लड़ैती

वृथा भई सब स्वासा

हरिहौं वृथा भई सब स्वासा घोर कल्मष क्लेश हिय माँहिं कबहुँ होय परकासा नाम भजन की बात न निकसै स्वांग बनायो भारी मीठो मीठो रूप बनावै बाँवरी भीतर खारी खारी झूठ कपट मिथ्या बकवाद यही बाँवरी दिन रैन लगी सोई रैन दिवा पाँव पसारै भजन कौ क्षणहुँ न जगी

भीगी सी इक रात

भीगी सी इक रात हमने आज फिर बिताई है जाने क्यों दिल ने तेरे आने की उम्मीद लगाई है कतरा कतरा लहू का तुझसे मिलने को प्यासा है रिसते हुए सब ज़ख्मों की तू ही एक दवाई है भीगी सी.... मुद्दत से न तुम आए न कोई इशारा समझे हम जब इश्क़ नहीं है इस दिल में फिर क्यों उम्मीद जगाई है भीगी सी..... काश बहते बहते इन अश्कों सँग ज़िन्दगी भी बह निकले सुलगते से इन अरमानों पर क्यों बौछारें बरसाई हैं  भीगी सी..... चलो बहुत हुआ यह खेल अभी मुद्दत से तुमने खेला जो  सब जीत तेरी बस हार मेरी अब जान पर बन आई है भीगी सी...... सच है सच है नहीं काबिल हम तेरे इश्क़ के कभी मुझसे मिला भी क्या है साहिब बस केवल रुसवाई है भीगी सी.... चलो बहने दो इन अश्कों को पानी से लहू के कर देना तेरा नाम निकले हर साँस के साथ बस यह उम्मीद लगाई है भीगी सी.....

उत्सव

उत्सव कैसा उत्सव ताप का उत्सव हाँ आज यही उत्सव सजेगा भीतर का उछलता लावा लफ्ज़ बन जाने कहाँ कहाँ बिखरेगा हाँ भर दो सब ताप यहाँ भीतर की शरद तुम हो जाओ सूखा मारुथल इक तपता सा मैं पावस की झरन तुम हो जाओ चलो सारी अग्न मैं पी जाऊँ शीतल सा सफर तुम हो जाओ तुमको ही रँगना है रंगरेज मेरे इश्क के रंगों में तुम भर जाओ

मोतिन कौ श्रृंगार

यह मोतिन कौ श्रृंगार न है यह तो गौरांगी की गौरता का श्रृंगार है। *मोतिन धरै पाग मोतिन कौ धरै हार* *मोतिन कौ कुण्डल सोहै मोतिन कौ सगरौ श्रृंगार* *मोतिन कौ बाजूबन्द धरयो मोतिन  कौ कँगन* *मोतिन कौ पायलिया झूमै मोतिन कौ कमर किंकिन* *मोतिन सौं उज्ज्वल पाग धरी मोतिन कौ गलहार* *बाँवरी कबहुँ होत एक मोती करत रमण प्राण निज श्रृंगार*