कहाँ गई
कहाँ गई कहो सखे मम हिय की बिरह पीर
दृगन जल ऐसो सूख गयो बाँवरी भई अधीर
कौन चुरावे लेय गयो सखी मेरो बिरह ताप
जलत न हिय पाथर मेरो उठे नाँहिं संताप
पिय बिन कोऊ पीर नाँहिं किधर गयो सब नेह
प्रेम रस मेरो हिय नाँहिं रहयो होवै मोहे सन्देह
हाय !! बाँवरी खोय दियो पिय प्रेम की पीर
हिय नाँहिं पिय न बिरह पीर नैनन सुखयो नीर
ओ सखी न तो मुझे पिया मिले ऊपर से मेरे हृदय में कोई पीड़ा भी नहीं उठ रही। विरह का वह ताप जो मुझे दिन रात जला रहा था मुझे उसकी भी प्रतीति नहीं हो रही। ऐसे लग रहा है जैसे यह हृदय पाषानवत हो गया है जिसपर विरह की आंच का कोई प्रभाव ही नहीं है। हाय मेरे नयनो से अश्रु भी नहीं आ रहे। मैंने विरह की पीड़ा को क्यों खो दिया है। न तो मेरे हृदय में प्रियतम बसे हैं और न ही बिरह की पीर। मुझे सन्देह ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास हो गया है मेरे हृदय में प्रियतम हेतु रंच मात्र भी प्रेम नहीं है
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