पाथर चित्त
हरिहौं काहे न पाथर चित्त द्रवै
जनमन जन्म पतित अति पामर बाँवरी न हरिनाम लवै
नाम लेत न होय चित्त अधीरा न कबहुँ नयन बहै
लोभी जगति माया की बाँवरी न सन्तन चरण रहै
हा हा नाथ किस विध होय उधारा बाँवरी न हरि भजै
पकरि पकरि देयो चपत लगाय बाँवरी न अभिमान तजै
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