गठरी

हरिहौं प्रीति की रीति न जानी
कान देय न सद्गुरु बाताँ करत सदा मनमानी
मनमत सौं नाँहिं भक्ति उपजै सन्तन चरण बिसराम
सन्त वचन हिय लेय बसाय देय मोल सब चाम
सन्त चरण धूरि सीस धरै बिन भक्ति हिय न उपजै
आप मिटाय बिनहुँ बाँवरी भोग विषय न कबहुँ निकसै

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