रस

सखी ही श्याम
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किशोरी जू बहुत व्याकुल हो रही हैं। श्यामसुन्दर बहुत विलम्ब कर दिए आने में। किशोरी जू को उनका विलम्ब असहनीय हो रहा है। वो एक सखी को बार बार कहती हैँ देखो श्यामसुन्दर आये या नहीं । सखी पुनः पुनः देखती है कि आज तो श्यामसुन्दर आ ही नहीं रहे। मेरी स्वामिनी जू कितनी अधीर हो रही हैँ।  कहीँ सब सखियों ने कान्हा जू के संग विनोद किया और उनसे नृत्य करवाया और खूब हँसी की इस बात से कान्हा आ ही नहीं रहे। सखी के मन में पुनः पुनः पहली बात की स्मृति हो रही है। पर ये बात अपनी स्वामिनी जू को कैसे कहें। उन्हें तो धैर्य धराना होगा अन्यथा उनकी स्थिति सम्भल नहीं सकेगी। सखी श्री जू को कहती हैं राधे जू ! श्यामसुन्दर आ ही रहे होंगें । अवशय ही उन्हें कोई ऐसा कार्य हो गया जो टाला नहीं जा सके। मैं आपको श्यामसुन्दर की कल की बात बताती हूँ। सखी के मुख से श्यामसुन्दर की वार्ता सुनते हुए श्यामाजु कुछ समय तक अपने अधीर हृदय को सम्भालती हैँ। कुछ समय पश्चात श्री जू को श्यामसुन्दर का विरह सहन करना अत्यंत कठिन होने लगता है। श्री जू मान धारण कर लेती हैं। श्री जू एक सखी को बुलाकर कहती हैँ तुम द्वार पर खड़ी हो जाओ। श्यामसुन्दर आवें तो उन्हें लौटा देना । भीतर नहीं आने देना उन्हें।
 
     सहसा उनकी भाव स्थिति परिवर्तित होने लगती है। वो अपनी सखी को ही श्यामसुन्दर समझ बैठती हैँ। ये श्यामा की कोई नई बात नहीं रही। व्याकुलता बढ़ती है तो उन्हें श्यामसुन्दर किसी भी रूप में प्रतीत होने लगते हैँ। ओ श्यामसुन्दर ! तुम इतनी देर कहाँ थे। जानते हो न मैं इतनी देर तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। तुम नित प्रतिदिन मेरी परीक्षा क्यों लेते हो । श्यामा उस सखी का पुनः पुनः आलिंगन करने लगती हैँ। सखी भी सोचती है कि श्यामा जू को अभी यूँ ही रहने देती हूँ। कम से कम श्यामसुन्दर के आने तक इन्हें व्याकुलता तो नहीं होगी। भीतर से सखी सोचती है कि यदि श्यामसुन्दर पहली बात को लेकर क्रोध में हुए और न आये तो श्यामा जू कितनी देर यूँ ही व्याकुल रहेंगीं। सखी अभी श्यामा जू के आनन्द में ही आनन्दित हो रही है। श्यामा जू कहती है श्यामसुन्दर तुम शीघ्रः लौट आया करो। कभी सखी को श्यामसुन्दर समझ निहारने लगती है कभी उसका आलिंगन करती हैँ। इस सखी की दशा भी विचित्र होती जा रही है।

    उधर श्यामसुन्दर आ जाते हैं। द्वार पर खड़ी सखी उन्हें कहती हैं आपको भीतर जाने की आज्ञा नहीं है। क्यों मैंने क्या किया है ? आज श्री जू आपके विलम्ब के कारण बहुत पीड़ा में हैँ वो आपसे रूठ गयी हैँ। सखी मुझे भीतर जाने दो मुझे मिलना है श्यामा से। नहीं नहीं कदाचित नहीं स्वामिनी जू की आज्ञा नहीं है। आप भीतर नहीं जा सकते। कान्हा उस सखी की बहुत मनुहार करते हैँ। सखी को कान्हा की स्थिति पर दया आने लगती है। श्यामसुन्दर आखिर मेरी स्वामिनी जू के प्राणवल्लभ हैं। श्री जू कभी इनसे रूठ नहीं सकती । उनका मान भी क्षण भर का होता है। सखी को स्वामिनी जू के हृदय की स्थिति ज्ञात है। अच्छा आप बाहर रुको मैं भीतर स्वामिनी जू से आज्ञा लेकर आती हूँ। सखी भीतर की ओर जाती है तो क्या देखती है स्वामिनी जू तो एक सखी को श्यामसुन्दर ही समझ बैठी हैं। उसका कर अपने करों में लेकर नैन मूँद कर बैठी हुई हैँ। वो सखी बाहर से आने वाली सखी को श्यामसुन्दर के आने का पूछती हैँ तथा कहती हैं उन्हें शीघ्रः भीतर भेज दो। सखी पुनः बाहर जाकर श्यामसुन्दर को भीतर भेज देती हैँ।

      भीतर बैठी सखी श्यामसुन्दर को इशारा करती है। श्यामसुन्दर उसकी जगह आकर बैठ जाते हैँ और श्री जू का कर अपने कर में ले लेते हैँ और सखी चली जाती है। जैसे ही श्यामसुन्दर का कर श्री जू के कर से स्पर्श करता है श्री प्रिया जू धीरे से अपने मूँदे हुए नैन खोलती हैं और श्यामसुन्दर को अपने समक्ष देखती हैं। उनके लिए तो श्यामसुन्दर पहले से ही मौजूद थे। श्यामा उन्हें पुनः आलिंगन में ले लेती हैं और सखियाँ युगल के आनन्द से आनन्दित होती हैँ।

    इस अद्भुत प्रेम की जय हो

      जय जय श्री राधे

*नन्दलाल गोपाल*
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कान्हा बहुत नटखट होते जा रहे हैँ। गोपियों से छेड़ा छाड़ी, उनकी चोटियां बांधना,बछिया खोल देनी ,मटकी फोड़नी ,माखन चुराना तो जैसे नित्य क्रम हो चुका इनका । सभी गोपियाँ सोचती हैँ इस नटवर लाल को किसी दिन अपनी पकड़ में लेकर सारी शैतानियों का खूब मज़ा चखाया जावे।

    परन्तु ये चतुर शिरोमणि भी कुछ कम तो नहीं हैँ। गोपियों के हृदय की भाँप चुके हैँ कि ये अवशय ही कुछ करने की ताक में हैं। अभी ये शांत हो चुके हैं। परन्तु गोपियों के हृदय में शांति तो तभी होगी जब ये अपने प्राण प्रिय नटवर से कुछ प्रेम भरी छेड़ छाड़ नहीं कर लें। अभी ये हम सबकी पकड़ में तो आने वाले नहीं हैँ। राधा ही हमारी सहायता कर सकती है।

   सभी गोपियाँ राधा को कहती हैँ। प्यारी जू तुम इन नटवर को बातों में लगाकर एक तरफ लेकर आओ । आज हम सब खुद विनोद करेंगीं इनसे। इन प्रेम स्वरूप् परमानन्द स्वरूप् नटवर किशोर का स्वाभाव ही प्रेम पाना और प्रेम देना है। प्रेम भाव से तो ये बंधने को सदा सर्वदा लालायित रहते हैँ। राधा कान्हा को बुलाकर मित्र मण्डली से दूर एक ओर ले जाती है जहाँ गोपियाँ इन्हें घेर लेती हैँ। नटवर किशोर आज हम तुम्हारी शरारतों का खूब मज़ा देंगें तुम्हें। कितने दिन से तुमने उत्पात मचा रखा है। आज हम सब तुम्हें छोड़ने वाली नहीं हैँ। कान्हा उन्हें देखकर भोली सी सूरत बना लेते हैँ जैसे उन्होंने कभी कोई उत्पात ही नहीं किया हो। अच्छा गोपियो बोलो मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिए क्या करूँ। कान्हा आज तुम्हें हमारे इशारों पर नाचना होगा। जैसा हम निर्देश दें तुम्हें हमारे लिए नृत्य करना होगा।

    कान्हा तो प्रेम भरी इस छेड़ छाड़ से स्वयम् भी आनंदित होते और सबको आनन्द देते हैँ। हाँ तो बोलो मुझे क्या करना होगा। ललिता गोपी को अत्यधिक रोष हुआ है। वो आगे बढ़कर कान्हा को कहती है कान्हा जब मैं कहूँ नन्दलाल तो तुम बाईं ओर ठुमका लगाओगे जब मैं कहूँ गोपाल तो तुम दाईं और ठुमके लगाओगे। सभी गोपियाँ और राधा खिलखिलाकर हँसती हैं। भोली सी सूरत वाले कान्हा आज मित्र मण्डली से दूर गोपियों के प्रेम में विवश हुए बंधे पड़े हैं।
  
    नृत्य आरम्भ होता है। नन्दलाल गोपाल नन्दलाल गोपाल .........ललिता जू आरम्भ करती हैँ और कान्हा  बाईं दाईं ओर ठुमके लगाते हैँ। सहसा ही ललिता जू के हृदय में विनोद जागता है। वो बोलने लगती हैं नन्दलाल नन्दलाल नन्दलाल नन्दलाल ........तथा कान्हा एक और ही ठुमका लगाते हैँ। ओ ललिता ठीक से बोल न। देख मेरी पतली सी नाज़ुक कमर बल खा रही है। कान्हा तुम तो पहले से ही टेढ़े हो अभी तो तुमको सीधा करना है। सभी गोपियाँ जोर जोर से हँसती हैँ।

     पुनः नृत्य आरम्भ होता है। नन्दलाल गोपाल नन्दलाल गोपाल........तथा कान्हा बाईं दाईं ओर ठुमके लगाते हैँ। पुनः ललिता जू विनोद करने लगती हैँ। आखिर इतने दिन इस उत्पाती का उत्पात सहा है। अभी मन कहाँ भरा है ललिता जू कहती है गोपाल गोपाल गोपाल गोपाल ......... । अरी गोपी तू फिर से शुरू हो गयी । अभी तो मेरी कमर पूरी टेढ़ी हो गयी है। टेढ़ी कहाँ हुई कान्हा ये तो जो पहले टेढ़ी हुई उसका टेढ़ा पन भी नहीं गया। सभी गोपियाँ और राधा जोर जोर से हँसती हैं। कान्हा जू भोला सा मुख बनाकर नृत्य करते रहते हैँ। इन प्रेम आतुर नटवर का कार्य ही तो प्रेम देना और प्रेम लेना है। जिसके लिए ये कैसी कैसी लीला रचते रहते हैँ।

  नटवर किशोर की जय हो
नन्दलाल गोपाल की जय हो
       जय जय श्री राधे

श्यामा तुम श्याम तुम
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कान्हा आज वन में सखाओं के संग गौ चारण को गए हैँ। गोप ग्वालों के साथ ऐसा आनन्द हो रहा है और गईयां बछड़ों संग तो खेलकूद का आनन्द ही कुछ और है। इसी बहाने श्यामसुन्दर घर से बाहर निकले हैं। प्रकृति भी उन्हें स्वयम् संग पा रही है। एक एक गाय बछड़े को पकड़ पकड़ सहला रहे हैं जैसे हर कोई उनका स्पर्श पाने को व्याकुल हो। इस आनन्द का वर्णन शब्दों में कहाँ होगा। वन में गोप ग्वालों संग बैठे हैँ।

    कुछ समय बाद कान्हा अकेले शांत से होकर बैठ गए हैँ। ना जाने किन स्मृतियों में खोये हैं। तभी एक गोपी आकर कान्हा को पूछती है कान्हा तुम अकेले हो यहां । राधा कहाँ है ? कान्हा एकदम से बोल पड़ते हैं तुम। तुम राधा । गोपी सकपका जाती है अभी कान्हा को क्या उत्तर दे उसकी समझ से बाहर हो जाता है। वहां से सीधी दौड़ राधा जू की ओर लगाती है। राधा राधा कहाँ हो तुम ? राधा जू बाहर की ओर देखकर कहती हैँ क्या हुआ कान्हा? कान्हा ? अभी ये गोपी और चकराने लगती है। उधर तो कान्हा इसे राधा समझ रहे हैं और इधर राधा उन्हें कान्हा कह रही है। अब सखी सोचने लगती है ये मेरे संग क्या हो रहा है? कुछ क्षण रुककर पुनः कान्हा की ओर चलती है। देखूं तो सही क्या मुझे ही ये आभास हो रहा है या इन दोनों की स्थिति ही विचित्र है। पुनः कान्हा के पास। वन में पहुंचती है तो कान्हा कहते हैं बाँवरी मेरी पूरी बात तो सुनी न है। पहले ही भाज गयी तू। कबते कह रहा था तुम राधा के पास जाओ और कहो मुझसे मिले शीघ्र ही। सखी को अपनी स्थिति ही विचित्र लगती है। ये क्या कभी मुझे कुछ सुनता है कभी कुछ। पूरी बात तो सुनी न मैंने। अब पुनः राधा की ओर लौटती है।

   बाँवरी कहाँ चली गयी थी तुम मैं कबते पूछ रही थी कान्हा ने क्या कहा है बोलो। अब तो बाँवरी सच में ही बाँवरी हुई जा रही। अब अपनी स्थिति किसे कहे। सारी व्यथा श्री राधा जू से कहती है। राधा उसकी पूरी बात सुन बहुत जोर जोर से हँसती है। राधा जू को खिलखिलाते देख अभी ये बाँवरी गोपी भी प्रसन्न हो गयी। क्योंकि स्वामिनी राधा ही तो इसके प्राण हैं। उन्हें किसी भी बात का आनन्द हो ये भी सौभाग्य की बात है।

  जय जय श्री राधे

निंदिया बने श्यामसुन्दर
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किशोरी जू श्यामसुन्दर का चिंतन करते करते शैया पर लेटती हैं। श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर ......पुनः पुनः उनका हृदय यही पुकारता है। श्यामसुन्दर आ जाते हैँ देखते हैँ मेरी प्यारी जू के नैन तो मूंदे हुए हैं। आहा ! आज किशोरी जू के नैनों में निंदिया बनकर समा जाऊँ। मेरी प्यारी जू कितने प्रेम से मुझे पुकार रही हैँ। श्यामसुन्दर निंदिया बनकर प्यारी जू के नेत्रों में समा गए । आहा ! जब प्रिया प्रियतम संग हों तो सखी का आनन्द मन में नहीं समाता। सखी को केवल अपनी श्यामाजू ही दिखाई पड़ती है जो अपने नैनों में श्यामसुन्दर को निंदिया बना धारण कर चुकी है।
  इधर श्यामा जू के नेत्र तो प्रेम रस से भर गए। श्यामा जू प्रेम मूर्छा में हो रही परन्तु उनका रोम रोम श्यामसुन्दर को चाहता है। उनका हृदय व्याकुल हो उठा। श्यामसुन्दर नैनों में आ गए पर हृदय को कौन समझावे। हृदय तो श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर की ही रट लगा रहा है।

     प्यारी जू ऐसे अपनी पलकें ढाँप कर लेटी हुई हैँ कि श्यामसुन्दर इन्हीं में समाये हुए हैँ। आज उनकी पलकें ही सारा प्रेम रस चख रहीं जैसे। धीरे धीरे व्याकुल हृदय की पुकार देख उनका रोम रोम व्याकुल होने लगता। उनकी पुकार इतनी तीव्र हो उठती है। श्यामसुन्दर श्यामा के नैनों में ही समाये हुए हैँ भीतर से ही उन्हें निहार रहे हैँ। पर श्यामा जू के रोम रोम से व्याकुलता उठ रही है। उनकी केवल ऑंखें ही नहीं रोम रोम श्यामसुन्दर से मिल्न को उत्कण्ठित है। श्यामसुन्दर अपनी प्यारी जू के साथ जहाँ मिलन का आनंद ले रहे वहीं उनके भीतर विरह के ताप को भी अनुभव कर रहे हैँ। ये कैसी विचित्र स्थिति है। श्यामाजु का प्रेम ऐसा अद्भुत है। बलिहार बलिहार ! मेरी प्यारी जू।

श्यामा अधीर हो उठी और नींद से जाग श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर पुकारने लगी। सखी कहती है प्यारी जू धीर धरो श्यामसुन्दर आ ही रहे होंगें। आज श्यामसुन्दर श्यामा में ऐसे समाये हुए कि न तो श्यामा को उनका अनुभव हो रहा न ही सखी को दिखाई पड़े। श्यामसुन्दर अपनी प्यारी जू को ऐसे विरह ताप में कैसे देख सकते हैँ। एक क्षण में श्यामसुन्दर उनकी पलकों से ही प्रकट हो जाते हैँ। श्यामसुन्दर तुम कहाँ थे। कब से तुम्हें पुकार रही थी। अभी तक प्यारी जू को ये अनुभव नहीं हुआ की वो श्यामसुन्दर के संग ही थीं उनके प्रेम में ऐसी व्याकुलता हो उठती है कि मिलन में भी विरह गहरा जाता है। श्यामसुन्दर अपनी प्रिया जू के इस अद्भुत प्रेम पर पुनः पुनः बलिहार जाते हैँ। सखी अपने प्रिया प्रियतम के इस अद्भुत प्रेम पर न्योछावर हो जाती है।

    जय जय श्री राधे

युगल रूप
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एक सखी बहुत सुंदर पायल लेकर स्वामिनी जू की सेवा में जाती है। मन में यही भाव आहा ! आज तो मेरे अहोभाग्य मुझे श्री जू के चरण छूने का सुअवसर मिल रहा । श्री जू के कोमल चरणों को छू पाऊँगी मैं। कहीँ मेरे स्पर्श से कोमलांगी श्री किशोरी जू को कष्ट तो न होगा। मन में यही भाव लिए श्री जू की और चलती है। हृदय में स्वामिनी जू का नाम ही ध्वनित हो रहा है। राधा राधा राधा ........

     मार्ग में उसे कान्हा रोक लेते हैँ और उसे कान्हा भी आज श्री जू दिखाई पड़ते हैँ। राधा जू मैं तो आपके पास ही आ रही थी। आज मुझे आपके चरणों को छूने का सौभाग्य मिला है। ये पायल मुझे आपके चरणों में अर्पित करनी है। अरे बाँवरी ! तुझे क्या हुआ है मैं तुझे राधा दीख रहा हूँ । ये क्या लाई है तू राधा जू के लिए। सखी कहती है स्वामिनी जू ये पायल आपके लिए ही तो लाई हूँ । कान्हा उसके हाथ से पायल पकड़ लेते हैँ तो सखी कहती है प्यारी जू मुझे अपने चरण न छूने दोगी । लाओ मैं पहना दूँ । कान्हा कहते हैँ बाँवरी तू आज भर्मित जान पड़ती है। यहां बैठ जा। तभी कान्हा अपनी बाँसुरी निकालकर बजाने लगते हैँ। कान्हा की बांसुरी तो एक ही नाम पुकारती है राधा राधा राधा ......... देख मैं कान्हा हूँ । सखी कहती है अच्छा कान्हा हो । कान्हा कान्हा कान्हा ....... यही बोलते हुए उठकर श्री जू के सन्मुख पहुंच जाती है।

श्री जू के पास जाकर उनसे कहने लगती है कान्हा ! मुझे फिर से बांसुरी सुनाओ ना । तुम बाँसुरी में प्यारी जू का नाम लेते हो तो मन करता है तुम्हारी बांसुरी सदा बजती ही रहे। श्री जू उस सखी को पकड़ कर हिलाती हैँ। श्री जू कहती हैँ तुझे आज क्या हो गया मैं कान्हा नहीं हूँ बांसुरी तो कान्हा के पास है। श्री जू के छूने से जाने क्या हो जाता है। सखी उनके चरणों को पकड़ लेती है और कहती है कान्हा एक बार और सुनाओ मुझे बांसुरी में प्यारी जू का नाम। तभी वहां कान्हा आ जाते हैँ ।

     राधा और कान्हा एक दूसरे को देख देख आनन्दित होने लगते हैँ। ये उन्हीं का ही तो प्रेम है जो सखी उनको अभिन्न देख रही है। कान्हा को प्यारी जू और प्यारी जू को राधा देख रही है। ये वास्तव में युगल प्रेम ही है जहाँ एक क्षण को भी प्रिया प्रियतम का वियोग ही नहीं है।

   इस अद्भुत प्रेम की जय हो।

       जय जय श्री राधे

नृत्य प्रतियोगिता
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एक बार श्यामसुन्दर के मन में श्री किशोरी जू और उनकी सभी सखियों का नृत्य देखने की इच्छा हुई। नटखट कान्हा अपने सखाओं से बोले यदि हम एक नृत्य प्रतियोगिता रखें और इन सब गोपियों को हरा दें तो कितना आनन्द हो। उनकी शरारती मित्र मण्डली उछल कूद तो खूब जाने पर नृत्य करना सबके बस की बात कहाँ।

     श्यामसुन्दर ने नृत्य प्रतियोगिता की बात श्यामा जू और उनकी सखियों से कही जिसे श्यामा और सब सखियों ने हँसकर स्वीकृति दे दी। इस नृत्य प्रतियोगिता में जितने वाले को हारने वाले से अपनी मनचाही बात मनवानी थी। प्रतियोगिता के लिए उपयुक्त स्थान और समय नियत हो गया।

    श्यामा और उनकी सारी सखियाँ तो नृत्य संगीत में अद्भुत प्रवीण थीं। सब ताल से ताल मिला नाचने और गाने लगीं। दूसरी और नटखट मित्र मण्डली को उछल कूद से ना फुर्सत मिले न ही नाच गान के लिए कोई प्रयास हुआ।  

    प्रतियोगिया का दिन पास आ गया अब श्यामसुन्दर अपने सखाओं से कहते हैँ यदि हमने अभी भी कोई प्रयास नहीं किया तो हमारी नाक कट जावेगी। सब सखा बेसुरी ताल दे गाने और नृत्य का अभ्यास करने लगे। आहा ! उनके इस प्रयास को देख श्यामा और उनकी सखियों की हँसी छूट रही थी परन्तु उन्होंने नोक झोंक करना उपयुक्त नहीं समझा।

    प्रतियोगिता का दिन आ गया। नियत समय पर प्रतियोगिता शुरू हुई। कान्हा और उनकी नटखट मण्डली का नृत्य संगीत देख देख श्यामा और उनकी सखियाँ खूब हँसी । अब श्यामा और उनकी सखियों की बारी आई। अद्भुत नृत्य और गान हुआ। बलिहारी बलिहारी ऐसा नृत्य संगीत देख श्यामसुन्दर का मन मुग्ध हो गया। प्रतियोगिता तो मात्र एक बहाना था उनको तो इस अद्भुत आनंद की चाह थी। अब सखियाँ बोली श्यामसुन्दर आप और सारी सखा मण्डली हार गयी है अब आपको अपनी हार स्वीकार करनी होगी और हमारी श्यामा जू के चरण छूने होंगें। आहा ! आनन्द एक तो प्यारी जू का सखियों संग अद्भुत नृत्य देखा और सखियों ने प्यारी जू की चरण सेवा दिलवा दी। श्यामसुन्दर आज अपने सौभाग्य पर प्रसन्न हो रहे हैँ। श्यामसुन्दर के हृदय में कोई अभिलाषा हो और वो श्यामा पूरी नहीं करें ऐसा तो कभी सम्भव ही नहीं हुआ। श्यामा अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से अभिन्न ही हैँ।

  ऐसी अद्भुत प्रीती पर पुनः पुनः बलिहारी।

    जय जय श्री राधे

राधा पूछे राधा कौन
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एक बार श्री राधा अपनी सखियों के संग यमुना किनारे बैठी होती हैँ। सभी सखी आपस में श्री राधा और श्यामसुन्दर के प्रेम की बातें करती हैं। कोई कहती है राधा के रोम रोम में श्यामसुन्दर बसे हैँ । राधा के समान श्यामसुन्दर को कोई प्रेम नहीं कर सकता। राधा का हृदय केवल श्याम के लिए धड़कता है।
   
        कोई सखी श्यामसुन्दर का राधा से प्रेम बखान करती है। श्यामसुन्दर सदैव राधा जू की सेवा को लालयित रहते है। श्याम को हर और राधा ही राधा लगती है। श्री जू बैठी बैठी सब सुनती है। उनके हृदय में राधा और श्याम के प्रेम का आस्वादन इतना बढ़ जाता है कि स्वयम् को भूल ही जाती हैँ। मन में राधा श्याम के प्रेम का ही चिंतन चलता रहता है।

      श्री जू बहुत उदास होकर बैठ जाती हैं। स्वयम् का राधा होना ही भूल जाती हैँ। मन में यही चिंतन श्याम राधा के हैँ। राधा श्याम की है। दोनों का प्रेम नित्य है। हा ! मैं श्याम को प्रेम नहीं दे पाई। मुझसे श्याम को कोई सुख नहीं हुआ। राधा मेरे प्रियतम श्याम को प्रेम दे रही है। उनको सुखी कर रही है। मुझे इस बात से कितनी प्रसन्नता हो रही है। मेरे श्याम को सुख मिल रहा है। मुझे ये तो ज्ञात होना चाहिए ये राधा कौन है। ये कैसी हैं जिनके प्रेम का सुख श्याम को हो रहा है। मुझे राधा को देखने की जिज्ञासा हो रही है।

     एक सखी श्री जू से पूछती है ,तुम इतनी उदास क्यों हो। बहुत समय से तुम खोई हुई हो। तभी श्री जू उस सखी से पूछती हैँ सखी तुम जानती हो ये राधा कौन है ,कैसी है ,कहाँ रहती है। राधा से मेरे प्रियतम श्याम को सुख हो रहा है। मुझे इस रमणी को देखने की जिज्ञासा हो रही है। सखी एक बार तो आश्चर्य चकित हो जाती है। आज मेरी स्वामिनी जू को प्रेम का ऐसा दिव्य उन्माद हुआ कि वो स्वयम् राधा है ये भी स्मरण नहीं रहा। आहा !युगल सरकार का प्रेम कितना दिव्य ,अनन्त, पूर्ण प्रेम है जहां अपना अस्तित्व ही नहीं। केवल प्रेम ही प्रेम। सखी श्री जू की बात सुन मन्द मन्द मुस्कुराती है।

    तभी वहां श्यामसुन्दर आ जाते हैँ । श्री जू उनके पास जाती हैँ और पूछती हैँ श्यामसुन्दर तुम प्रसन्न तो हो। मैं कुरूपा अभागा तो आपको प्रेम ही नहीं दे पाई। आपको राधा से सुख हुआ इसी से बहुत प्रसन्न हूँ। श्यामसुन्दर स्वयम् आश्चर्य में पड़ जाते हैँ। वो राधा से कहते हैँ हाँ तुम ठीक कहती हो। राधा नाम की रमणी मेरे रोम रोम में बस गयी है। राधा के बिना मैं अधूरा हूँ ।मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। तुम देखना चाहती हो राधा को। श्री जू राधा को देखने को बहुत उत्साहित हैँ। श्यामसुन्दर सखी को कहते हैँ तुम दर्पण उठाओ और श्री जू के सन्मुख करो।

   सखी दर्पण उठाकर श्री जू के सन्मुख करती है और कहती है इधर देखो ये राधा है। श्री जू तो अपने भाव में इस प्रकार डूबी हुई हैँ उन्हें दर्पण में श्याम ही दिखाई पड़ते हैँ। सखी तुम मुझसे परिहास करती हो ये तो तुम मुझे श्यामसुन्दर का चित्र दे दी हो। मुझे राधा की छवि देखनी है। सखी और श्यामसुन्दर एक दूसरे की और देखते हैँ। आज तो राधा जू बाँवरी हो गयी हैँ। प्रेम का ऐसा उन्माद तो पहले न हुआ कभी उन्हें । श्यामसुन्दर कहते हैं तुम इधर आओ तुम्हें राधा दिखाता हूँ । मेरी आँखों में देखो यहां राधा की छवि है। मेरी धड़कन सुनो इधर राधा ही है। जैसे ही राधा श्यामसुन्दर के नैन में झांकती है श्यामसुन्दर उन्हें स्पर्श करते हैँ। प्रेम का इतना गहरा भाव रूप कि श्री जू स्पर्श से मूर्छित हो जाती हैँ। कान्हा उन्हें अपने अंक में भर लेते हैँ और श्री जू को चेतना में लाने की चेष्ठा करते हैँ।

     कुछ क्षण बाद श्री जू के शिथिल अंग धीरे धीरे हिलने लगते हैँ। चेतना लौटने लगती है। श्यामसुन्दर पुकारते हैँ राधे ! राधे ! तो राधा आँखें खोल देती हैँ। स्वयम् को श्याम सुंदर के अंक में पाकर शर्माने लगती हैँ और उनके पीताम्बर में मुख छिपा लेती हैँ। अभी वो अपनी पहली भाव दशा से बाहर हैं और श्यामसुन्दर के प्रेम में पुनः डूबने को लालयित हैँ। श्यामसुन्दर और सखी श्री जू को देख आनंदित हो जाते हैँ।

   इस अद्भुत प्रेम की जय हो।

     जय जय श्री राधे

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