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Showing posts from September, 2022

दिल की बात

तुमको जो लिख सकें वो लफ्ज़ भी तुम्हारे होंगे मुझमें मेरे लफ्ज़ भी खामोश से ही रहते हैं अपनी तो जिंदगी निकल जाती तुझको सोचूँ कभी यह तो इश्क़ है तेरा जो मुझको भूलने नही देता चुन चुनकर कुछ लफ़्ज़ों को कुछ बुनने लगती हूँ जैसे फूल ही उठा रही सजाने को तुम्हें

ये इश्क़ तेरा

मुझमें जो उछलता है ये इश्क़ तेरा सांसों में भरता है ये इश्क़ तेरा हुई पगली सी दीवानी सी कुछ खोई सी बेगानी सी जो मुझमें उतरता है ये इश्क तेरा मुझमें जो.... यह मदहोशी सी है इश्क़ की यूँ खामोशी सी है इश्क़ की फिर बातें करता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कभी अश्कों की है कतार लगी तेरे नाम की बस यूँ पुकार लगी पल पल में सँवरता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कभी लफ़्ज़ों में यूँ बहता है तेरे इश्क़ की बातें कहता है नस नस में भरता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो...... कोई ग़ज़ल लिखूँ कोई गीत लिखूँ तू ही तो बता क्या मनमीत लिखूँ बस लिखता रहता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो..... कुछ ठहर लूँ कुछ थम जाऊँ कुछ सुन लूँ मैं फिर कुछ गाऊँ जाने क्या करता है ये इश्क़ तेरा मुझमें जो....

नित्य रमण

हाँ खोज ही लेते हो तुम मिलन का नव नव बिन्दु रमण का  नव नव उल्लास एक एक नाम तुम ही तो हो एक एक स्वास तुम ही तो हो कहाँ खोजूँ किसे पुकारूँ यह स्वास ही नाम बने भीतर बाहर  आती जाती स्वास सँग तुम्हारा नाम नहीं नहीं तुम ही भीतर बाहर  आते जाते मुझमें रमण करते लहराते हुए नित्य आंनद से भरता तुम्हारा एक एक स्पर्श मेरी स्वासों में तुम्हारे नाम का तुम्हारा ही रमण रमण रमण हृदय की प्रत्येक धड़कन सँग यह व्याकुल स्पंदन तृषित स्पंदन छूकर भी प्यासा और और छूने को मिलकर भी अधूरा सा फिर विस्मृति गहन विस्मृति रमण की विस्मृति नित्यानन्द के स्पर्श की विस्मृति पुनः पुनः रमण की लालसा नित्य वर्धन  नित्य आंनद नित्य रमण

चेतना का भजन

चेतना का भजन प्रत्येक चेतना उस चैतन्यता की ही नित्य बिन्दु है,प्रत्येक चेतना का नित्य चैतन्य में रमण ही नित्यानन्द है, यही चेतना का भजन है, नित्यानन्दित होना । नित्यानन्द के स्पर्श से ही चेतना उस परम चैतन्यता में रमण करती है। यही क्षण क्षण का नित्यानन्दित रमण ही चेतना का नित्य स्वरूप है।

कभी कभी

कभी कभी हाल ए दिल ऐसा होता है तेरा ही इश्क़ मेरी आँखों में आकर रोता है सच है कि मुझको इश्क़ कभी हुआ ही नहीं तेरा ही इश्क़ मुझमें सपने सभी सँजोता है कभी कभी..... जाआगे तुम भी कहाँ रूठकर मुझसे दूर भला मुझको तेरे इश्क़ का एहसास मुझमें होता है कभी कभी...... मेरे ही होकर रूठते हो मुझसे ही तुम क्यों कौन मुझमें आकर लड़ी अश्कों की पिरोता है कभी कभी....... चुरा लो मुझको कि थोड़ी सी मैं रहे न बाकी तेरे दामन से लिपटकर ही सुकून होता है कभी कभी..... थाम लो थोड़ा मुझे कि बह न जाऊँ तूफानों में चोट लगती है मुझे और दर्द तुमको होता है कभी कभी..... सच है हर दर्द से है इश्क़ का दर्द बुरा जितना बहता है अश्क़ हो मीठा होता है कभी कभी...... कोई दवा न कोई दुआ लगती है फिर उसे हाल वही जाने जो इश्क़ का मरीज होता है कभी कभी...... इश्क़ हो तुम और तुमसे ज्यादा है किसको पता इश्क़ के बीमार का मरहम ही इश्क़ होता है कभी कभी..... कितना बेचैन करके रखा है मुझको मुद्दत से कौन जाने हाल ए दिल कैसा होता है कभी कभी..... आज बह जाऊँ न मैं कहीं देखो लफ़्ज़ों में एक एक लफ्ज़ आज मेरा लिखते रोता है कभी कभी.... इश्क़ के लफ्ज़ भी होते हैं रंगों से भरे इ...

तुम ही तुम

तुमसे है तुमसे है ज़िंदगी का सफ़र तुम ही तुम बस हमसफ़र दिन भी तू रात तू .... दिल में उठी बात तू.... रह जाऊँ बस तेरे पहलू में छिपकर तुम ही तुम बस हमसफ़र अश्क़ तू हर खुशी भी तू .... मुझको मिली यह ज़िन्दगी भी तू.... ले चलो न मुझको मुझसे ही चुराकर तुम ही तुम बस हमसफ़र इश्क़ तू इबादत भी तू..... हर दुआ तू हर मन्नत भी तू..... रख लूँगी तुमको तुम्हीं से माँगकर तुम ही तुम बस हमसफ़र ख़ामोशी तू हर बात तू..... सांसों की हर मुलाकात तू..... जीती हूँ बस नाम तेरा लेकर तुम ही तुम बस हमसफ़र तुम ही तुम

नागरी नागर

*नागरी नागर* नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागरी प्रेमोन्मत विलसित जोरि रसमय विपुल प्रेम सागर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर मदनरँग रँगीली जोरि रस विलासी  नवकेलि उजागर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर दोउ चन्द चकोर दोउ मदनमत्त केलिरस प्रभाकर नागरी नागर नागरी नागर..... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर रसिक प्रवीण बंक चितवन अलकलड़े रस सुधाकर नागरी नागर नागरी नागर...... नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर नागरी नागर रसवीथिन क्रीड़त रसमय नवल वपु रस सौदागर नागरी नागर नागरी नागर....

परिधियाँ

परिधियाँ एक शून्य की परिधि पर खड़ी निहार रही कुछ कौतुक जो हुए जीवन सँग..... कुछ रँग जो बिखरे थे... कुछ फूल जो महके कभी.... कुछ तितलियाँ उड़ती हुई.... कुछ बारिशें छूती हुई..... नज़र लौटी पुनः अपने पर शून्यता की एक परिधि  जिसके भीतर हूँ मैं और परिधि एक रेखा  जिसे पार करना मेरा साहस मेरा बल  नहीं मुझमें कोई बल नहीं दिखती है बस एक परिधि और एक आशा कभी उस परिधि को पार कर जाने की तुम्हारी होकर  तुम्हारे सँग.... इसी आशा में  निहारती  अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह परिधियाँ...... मेरी ओर की....

स्पर्श

वो स्पर्श तुम्हारा स्पर्श क्या वो माटी चंदन न बन जाती जिसे तुम्हारा स्पर्श हो चंदन होकर कोई सुख  तुम्हारा ही तुम्हारे ही स्पर्श से... क्या वो कोयला  वही कालिमा भरा रहेगा या अमूल्य हीरा कोई तुम्हारे स्पर्श से क्या लोहा  लोहा ही रहेगा तुम्हारा स्पर्श पारस सम स्वर्ण न करेगा क्या वो पाषाण पाषाण ही रहेगा जिसे मिला तुम्हारा स्पर्श न वो पाषाण नहीं तुम्हारा ही स्वरूप कोई कौन रूपांतरण कर सके एक स्पर्श तुम्हारा स्पर्श क्या स्पर्श किये तुम इस मलिन चेतना को क्या यह मलिन ही रहेगी आवरणों में लिपटी मिला था कभी....  एक स्पर्श..... तुम्हारा स्पर्श.....

ललित तृषा

थी तो मैं एक पाषाण ही हाँ पाषाण कैसा पाषाण जो वर्षों लुढ़कता रहा इधर से उधर यहां से ठोकर वहाँ से ठोकर फिर दृष्टि पड़ी मुझपर हाँ इसी पाषाण पर एक मूर्तिकार की जिसकी सौन्दर्यमयी दृष्टि निहार पाई  कोई ललिताई भी आश्चर्य इस पाषाण में भी उठा लिया अपने श्रीकर से कोई मूर्ति गढ़ने हेत अब अपने राग से अनुराग से सहेज सहेज कभी प्रहार तो कभी दुलार से नित्य मुझे वह कर  सहलाते दुलारते गढ़ते हैं कोई ललिताई जो उनकी दृष्टि में है तो अब मैं पाषाण न रहूँगी हो जाऊँगी न उनका सुख कभी न कभी कर रहे न मुझ पर  नित्य नव अनुराग लेपन नित्य रस फुहार भीगती भीगती सी अब मैं..... उनकी कोई ललित तृषा होने को ..........