सिंगार को सिंगार
*सिंगार कौ सिंगार*
आज प्रियतम के हृदय में चाह उठ रही है कि अपने कर से अपनी प्यारी जु को सिंगार करें। अहा !!सिंगार को सिंगार। प्रियतम हृदय में जो भी अभिलाषा उठी स्वतः ही प्यारी जु के हृदय ने प्रियतम की सम्पूर्ण रस लालसा पूर्ण करने की तरँग उठने लगती है।प्रियतम ने तूलिका हाथ मे ले ली तथा प्यारी जु के श्रृंगार करने को (चरणों मे जावक रचना) को अपना कर बढ़ाने लगे , अपनी ईश्वरी के चरण दर्शन से ही उनके नेत्र भर आये। सम्पूर्ण रूप, कोमलता , लावण्यता की राशि को निहार भी न पा रहे प्रियतम। इनके चरणों की अरुणाई देख देख बलिहार हो रहे हैं तथा हृदय में अनुभव कर रहे कि श्रृंगार को श्रृंगार किस भांति किया जावै। निहार भी नहीं पा रहे, नेत्र उठा कर देखने लगते तो नेत्र भर भर आ रहे हैं। आज प्यारी जु के चरण दर्शह्न से ही प्रियतम के हृदय की यह स्थिति हो गयी है। तूलिका कर से छूट गई तथा प्रियतम ने आज अपने नेत्र जल से ही अपनी ईश्वरी का अभिषेक किया है।
अजहुँ पिय रुचै सिंगार को सिंगार।
मनभाविनी हिय उठै अभिलाष पूरण करन पिय की सार।।
हाथन माँहिं पकरत तूलिका प्रियतम दृग कोरन ते निहारै।
रूप छटा प्यारी कौ अनुपम कौन विधि सिंगार सिंगारैं।।
सकल मधुरता सकल कोमलता रूप लावण्य अपरिमित जानी।
कोऊ शब्द न व्यापै हिय ते मोहन मुख बतियाँ न आनी।।
छूटी तूलिका कर सौं ऐसौ हिय प्रियतम को उमगावै।
हा हा प्यारी चरण सहरावै दृग जल सौं अभिषेक करावै।।
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